भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
रविवार, 8 फ़रवरी 2015
गुलाबी सपने
सपने गुलाबी आँखों में उतर जाएंगे,
हम चाहेंगे तो यादों में संवर जाएंगे।
वक़्त बेरहम हैं गुज़रता ही जाएगा,
गर सोचेंगे तो ख्वाब बिखर जाएंगे।
नजूमी मिले तो पूछ इत्तिला करना,
वो लकीरों में कहाँ कैसे गुज़र जाएंगे।
निकलते है लोग रोज़ घरों से अपने,
रात आते फिर किसी सफर जाएंगे।
उम्मीदें काफी लगा ली ज़िंदगी से,
गुलाब बोये तो काटें निखर आएंगे।
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©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (७-फरवरी-२०१५)
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सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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