भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बुधवार, 31 दिसंबर 2014
पुरानी साँझ
आज
पुरानी साँझ
फिर पास आई।
कभी
चुपके-चुपके
खूब चुगलियाँ
करती थी तेरी।
आज
हौले से
मेरे कानो में
कुछ बुदबुदाई।
सुनाई
ना दिया कुछ
हाँ सिसकियाँ कैद है।
कानो के इर्द-गिर्द
और थोड़े भीगे
एहसासों के खारे छींटे भी।
आज
पुरानी साँझ
फिर पास आई।
___________________
पुरानी साँझ - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ // (डायरी के पन्नो से)
सोमवार, 29 दिसंबर 2014
जेबों से खुशियाँ निकाले
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
अंजान बस्तियों
में घूम-घूमकर
वीरान कसतियों
में झूम-झूमकर।
दर्द की
साखों से मस्तियाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
ख्वाब कौन देखता
कौन देखेगा।
जवाब कौन ढूँढता
कौन ढूंढेगा।
गलियों के
सन्नाटों से परछाइयाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
हमदम हरकदम
साथ चलता रहेगा,
जानम जानेमन
याद करता रहेगा।
टूट कर
इरादों से तनहाईयाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
_____________________
जेबों से खुशियाँ निकाले - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१४ (२९-दिसम्बर-२०१४)
शनिवार, 27 दिसंबर 2014
फूटबाल ज़िंदगी
ज़िंदगी
फूटबाल ठहरी...
पाले
बदल-बदलकर....
घिसटती रहती....!!
मंज़िल
के पास
पहुँचते ही,
एक जोर
का झटका
फिरसे पाले में
लाकर
खड़ा कर देता...!!
चलो
खुदा न खासते
मंज़िल
मिल भी जाए...
तो भी क्या...???
फिर
से वही
खेल खेलना
फिर से बीच में
परोसा जाना...!!!
मेरा कभी
एक शागिर्द
ना होता
होते ढेरों सारे...!!
मुझे मारकर
खुश होते
जश्न मनाते....!!!
मैं भी
खुश होता
उन्हे देखकर...!!
फिर किसी
अंधेरी कोठरी में
बैठा इंतज़ार करता
कोई आए
मुझे मारकर
खुद को सुकून पहुंचाए....!!!
ज़िंदगी
फूटबाल ठहरी...
पाले
बदल-बदलकर....
घिसटती रहती....!!
©खामोशियाँ - २०१४ // २८-दिसम्बर-२०१४
गुरुवार, 25 दिसंबर 2014
वजूद
वजूद भी घट रहा धीरे-धीरे,
यादों से मिट रहा धीरे-धीरे..!!
रास्ता धुधला पड़ा बात लिए,
ख्वाब सिमट रहा धीरे-धीरे...!!
एक धूल लतपथ सांझ खड़ी,
कारवां घिसट रहा धीरे-धीरे...!!
मंजिल मिलेगी भी खबर नहीं,
डर लिपट रहा हैं धीरे-धीरे...!!
चेहरा बिखरा कई हिस्सों में,
वक़्त डपट रहा है धीरे-धीरे...!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // २५-दिसम्बर-२०१४
शनिवार, 20 दिसंबर 2014
अधूरी कॉफ़ी - लघु कथा
वो अपनी कॉफ़ी पीता और चियर्स कर दुसरे सीट पर किसी से बात करता। उसको मनाता, समझाता प्यार करता। पर मैंने खुद करीब जाकर देखा वहाँ कोई नहीं था।
ये मालूम तो हो गया था कि बड़ा गहरा रिश्ता है उस जगह का उसके के साथ। उसके चेहरे के भाव घड़ियों की सूइयों पर चल रहे थे पल-पल बदलने को आमदा। ढेरों सामानों के बीच उलझा-उलझा सा था वो। उस लिफाफे में ऐसा क्या था जो उसके आँखों को भीगने पे मजबूर कर रहा था। कुछ बोतल बंद टुकड़े, कैप्सूल में उलझे सालों के पीले पन्नो में रोल किए।
उसको ना आज मौसम की फ़िक्र थी ना लोगों की। उसकी दुनिया बस उसी टेबल के इर्द-गिर्द सी थी। वो कुछ सोचता फिर लिखता। उसकी उँगलियों की हरकत से बखूबी दिख रहा था कि वो हर बार कुछ एक जैसे शब्द ही लिखता। काफी देर हो गए लेकिन दूसरा कॉफ़ी पीने वाला नहीं आया। उसकी कॉफ़ी मग उसके आँखों के झरने से पूरी तरह लबालब हो चुकी थी।
मुझे उससे पूछने की हिम्मत तो नहीं हुई पर होटल के मालिक से पूछा तो पता चला पिछले पांच सालों से आकाश दुनिया के किसी कोने में हो वो टेबल आज के दिन पूरे टाइम उसके और किसी निशा के नाम से बुक रहती। हाँ निशा मैडम अब ना आती पर उनकी पी हुई कॉफ़ी मग आज भी आकाश सर लेके आते।…
मैं कुछ बोल ना पाया बस सोचता रह गया.....और जुबान एक ही शब्द भुनभुनाते गए....!!
Love is Happiness...Love is Divine...Love is Truth...!!!
_________________________
अधूरी कॉफ़ी - लघु कथा
©खामोशियाँ // मिश्रा राहुल // (ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
विरह
विरह
चेतनाशून्य मन...
कोलाहल है हरसू...!!
संवेदना धूमिल..
सामर्थ्य विस्थापित
मन करोड़ों
मंदाकिनियों में भ्रमण...!!
काल-चक्र में
फंसा अकेला मनुज,
जिद
टटोलता चलता...!!
विस्मृत होती
अनुभूतियों में
शाश्वत सत्य खोजता..!!
संचित
प्रारब्ध के
गुना-भाग
हिसाब में उलझा
स्वप्न और यथार्थ में
स्वतः स्पंदन करता रहता...!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १७-१२-२०१४
शनिवार, 13 दिसंबर 2014
वक़्त
वक़्त बदला नहीं तो क्या करे,
दिल सम्हला नहीं तो क्या करे....!!!
उम्मीदें थी बड़ी तम्मना भी थी,
दर्द पिघला नहीं तो क्या करे....!!!
रातों को तारें गिने हमने रोज़,
चाँद निकला नहीं तो क्या करे...!!!
जान निकाल दिए जान के लिए,
प्यार पहला नहीं तो क्या करे...!!!
आँखें भिगोई बातें याद करके,
दिल दहला नहीं तो क्या करे...!!!
उम्र बस सहारा ढूंढते रह गयी,
कोई बहला नहीं तो क्या करे...!!!
गैर ही रहा ताउम्र हर आईने से,
अक्स बदला नहीं तो क्या करे...!!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १३-दिसम्बर-२०१४
ज़िन्दगी की किताब
लिखी है
थोड़ी बहुत
हमने भी
ज़िन्दगी
की किताब
कुछ टूटे
फाउंटेन पेन*
कुछ लाल
धब्बे मौजूद हैं
पहले ही
पन्ने पर.....!!
तारीखे हैं,
बेहिसाब
एक बगल
पूछती हैं
ढेरों सवाल..!!
दर्ज़ हैं
सूरज की
गुस्ताखियाँ
दर्ज़ हैं
ओस की
अठखेलियाँ...!!
रिफिल*
नहीं
हो पाते हैं
कुछ रिश्ते,
तभी आधे
पन्ने भी
बेरंग से लगते .....!!
*Fountain Pen *Refill
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १३-दिसंबर-२०१४
बुधवार, 10 दिसंबर 2014
हाँ मैं गुस्सैल हूँ
हाँ मैं
गुस्सैल हूँ...!!
रोज
सपने अपने
खोजता हूँ...!!
रोज गैरों
में अपना
खोजता हूँ...!!
अपने छोड़
देते अक्सर
दामन मेरा...
मैं फिर
भी उन्ही
को खोजता हूँ...!!
किस हाल
में होंगे वो...
इसी बात
को पकड़
सोचता हूँ...!!
चिल्लाकर
झल्लाकर
फिर वापस
वहीँ को
लौटता हूँ...!!
हाँ मैं
गुस्सैल हूँ...!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १०-दिसम्बर-२०१४
मंगलवार, 9 दिसंबर 2014
धीरे-धीरे
कुछ ऐसे ही फिसलता है मंज़र धीरे धीरे,
कुछ ऐसे ही निकलता है खंजर धीरे धीरे....!!
सपने मौजों की तरह ही उठकर बिखरते,
आँखों में उतरता है समुन्दर धीरे धीरे....!!
बात जुबान की कुछ ऐसे टूटती जेहन में,
दिल ऐसे ही बदलता हैं बंजर धीरे धीरे....!!
लोग मोम के बाजू लगाए घरों से निकलते,
जिस्म ऐसे पिघलता हैं जर्जर धीरे धीरे....!!
टूटे फ्रेम में ऐसे चिपकी है तस्वीर बनकर,
यादों में ऐसे महकता हैं मंज़र धीरे धीरे....!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // ०९-दिसम्बर-२०१४
शनिवार, 6 दिसंबर 2014
इश्क की सरजमीं
इश्क की सरजमीं पर अब दिखाई कौन देता हैं,
सब अपनी याद हैं लिखते छपाई कौन देता हैं....!!
वक़्त भी तो जरिया हैं समझ के खुद बदलनें का...
वफ़ा है नीम सी कडवी मलाई कौन देता हैं...!!
कभी चलती थी पुरवाई तो मैं भी राग गाता था,
अभी महफ़िल में भी चीखूँ सुनाई कौन देता हैं....!!
आँखों की छतरियाँ भी निकल आई इस मौसम में,
अब दिल की आग भी बरसे दुहाई कौन देता हैं....!!
खुद गुनाहों की सलाखों में लिपटकर देर तक बैठे,
ये धड़कन छूटना चाहे तो रिहाई कौन देता हैं....!!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // ७-दिसम्बर २०१४
लूडो खेलती है
लूडो
खेलती है
ज़िन्दगी हमसे अक्सर....!!
पासे
फेंकते
किस्मती छः
लाने खातिर बेताब होते...!!
किस्मत
खुलती छः
आते भी तो तीन बार...!!
अपने लोगों
को काट उनके
सफ़र दुबारा शुरू करते...!!
वही रास्ते
वहीँ गलियाँ
दुबारा मिलती जाती...!!
कहाँ से
चोट खाकर
वापस गए...
कहाँ से
जीत की
बुनियाद रखे....!!!
हरे...लाल...
पीले...नीले...
सारे भाव
चलते साथ-साथ...!!
कभी
गुस्सैल लाल
जीत जाता...
कभी
शर्मीला नीला
ख़ुशी मनाता...!!
पीला
सीधा ठहरा
सबको भा जाता...!!
हरा
नवाब ठहरा
नवाबी चाल चलता...!!
दिन
होता ना
हर रोज़ किसी का
कभी
कोई रोता
तो कोई मनाता...!!
लूडो
खेलती रहती
ये ज़िन्दगी अक्सर...!!!
©ख़ामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // ०५-दिसम्बर-२०१४
रविवार, 30 नवंबर 2014
एहसासों की पेंटिंग
अकसर
कूंची मुँह में
दबा दबाकर।
कैनवस
भरती है
बेचारी जिंदगी।
सारे
ख्याल रंगों की
प्याली में घोलकर।
ब्रश
डोलाती जाती
उसे पता न होता
कब उसने क्या उकेरा।
फिर
शान बढ़ाती है
किसी अमीरज़ादे
के ड्राइंग रूम की।
आखिर
खरीदा है जो
उसने एहसासों भरी
ख्वाबों की हमारी पेंटिंग ।
कॉपीराइट © खामोशियाँ - २०१४ - मिश्रा राहुल
जरूरी हो गई
आज
फिर से
वही परफ्यूम लगाया।
आज
फिर से
चेक शर्ट पहना है।
फलक
में सितारे
कहीं गुम है।
चल
चाँद के
दुधिया बल्ब में
उन्हें मिलकर खोजेंगे।
शब
खामोश हुई
गुस्साए बैठी देख।
आजा
फिर से सबको
लतीफ़े सुनाऊंगा।
तेरी हंसी
सबकी कानों
को जरूरी हो गई।
जिद
छोड़ अब
आजा ना कहाँ है तू।
© कॉपीराइट - खामोशियाँ - (२९-नवंबर-२०१४)
- मिश्रा राहुल
गुरुवार, 27 नवंबर 2014
आओ फिर से मुठ्ठी बांधे
आओ
फिर से मुठ्ठी बांधे....
आओ
फिर से खेल खेले....!!!
कभी
राजा निकाले...
कभी
फ़कीर निकाले...!!!
कभी
वादें निकाले....
कभी
यादें निकाले....!!!
कभी
नींदें निकाले....
कभी
रातें निकाले....!!!
कभी
चोर निकाले....
कभी
सिपाही निकाले...!!!
कभी
सन्डे निकाले...
कभी
हॉलिडे निकाले....!!!
आओ
फिर से उंगलियाँ बांधे....
आओ
फिर से खेल खेले....!!!
©कॉपीराईट - खामोशियाँ - २०१४ - २७/नवम्बर/२०१४
उम्मीदों के पतंग
पतंग
लेके लाया हूँ
उम्मीदों के आज...!!
अब तो
आजा तू
फिरसे मंझे बांधे
फिरसे कोई पतंग काटे....!!!
लाल वाली
अकेली उड़ रही
कटने को बेताब तुझसे...!!
सफ़ेद
घमंडी ठहरी
आ तोड़े गुरुर उसके...!!
नीला
फलक इंतज़ार
करता है आजकल...!!
हवाएं
सूनी-सूनी पड़ी
सब खोज रहे बस....!!
वही
छींट वाली
गुलाबी पतंग
जो लापता है बरसों से...!!
पतंग
लेके लाया हूँ
उम्मीदों के आज...!!
अब तो
आजा तू
फिरसे मंझे बांधे
फिरसे कोई पतंग काटे....!!!
©खामोशियाँ-मिश्रा राहुल-(२७-नवम्बर-२०१४)
सोमवार, 24 नवंबर 2014
तराजू
कहने को तो सारे अपने दिखाई देते हैं,
रात लेटो तो सारे सपने दिखाई देते हैं।
सर्दियों की ये रात भी खामोश है इतनी,
दूर सन्नाटे लिपटे जुगनू दिखाई देते हैं।
बात कहे दें तो कुछ बात भी बन जाएगी,
गुरूर की आगोश में चेहरे दिखाई देते है।
तलाश खत्म ना होगी उम्मीदों की कभी,
हर रोज़ तराजू थामे अपने दिखाई देते हैं।
ज़िंदगी उलझ गयी है लकीरों में इतनी,
आज आवाज़ कहाँ आँसू दिखाई देते है।
बहके कदम वापस क्यूँ लाए ये बता दे,
लौट के फिर से वहीं अपने दिखाई देते हैं।
©कॉपीराइट-खामोशियाँ
मिश्रा राहुल-(२३-नवम्बर-२०१४)
शुक्रवार, 21 नवंबर 2014
बालकनी
जरा तुम
बालकनी
पर आ जाओ।
फिर हम
कागज़ लपेटे।
फिर हम
पत्थर फेंके।
आजकल के
व्हाट्सएप में
वो मज़ा कहाँ।
- मिश्रा राहुल
क्यूँ
छोटे-छोटे
रंगीन एसएमएस,
फटे पुराने
चॉकलेट के रैपर,
हर रोज
गोंजे हुए कलेंडर।
तीन शब्द
पर चार रिप्लाई
से पटे पड़े इनबॉक्स।
सिरहाने
से लिपटी
फ्रेम मे दबी तस्वीर।
अकेले ही
उससे गपशप
करती मासूम निगाहें।
वक़्त की
छन्नी में आकर
सब क्यूँ थम सा जाता हैं।
©कॉपीराइट-खामोशियाँ-२०१४-मिश्रा राहुल
सर्द हवाएँ
अक्सर
जब ये
सर्द हवाएँ
खुली खिड़की
से आकर
मेरे बाल सहलाती।
तेरी याद
फिर से दुगनी
हो जाती।
- मिश्रा राहुल
मैं हार मानता।
चल मैं
हार मानता।
अब तो
बंद कर दे ना
बरसों पुराना
लुका-छिपी का खेल।
बहुत
तलाशा तुझे,
फ़लक में
सितारों के बीच।
क्षितिज में
बहारों के बीच।
मिली ना
मुझे तू कहीं पर।
बालों में रंगों के
लाले पड़ गए,
आँखों के कटोरे में
छाले पड़ गए।
सपनों नें
रास्ते बदल लिए,
वक़्त नें
वास्ते बदल लिए।
उम्मीद थी
कभी तो
टिप मारेगी तू।
उम्मीद थी
कभी तो
जीत मानेगी तू।
हाँ चल मैं ही
हार मानता हूँ।
अब तो
बंद कर देना
बरसों पुराना
लुका-छिपी का खेल।
©कॉपीराइट-खामोशियाँ-२०१४-मिश्रा राहुल
मंगलवार, 11 नवंबर 2014
मुंतज़िर
आंसुओं के दाम उलटने लगे है,
आरज़ू जब ऐसे सिमटने लगे है।
कलम कत्ल करते है आजकल,
दर्द टूटकर ऐसे लिपटने लगे है।
कल चाँद हिस्सों में पड़ा मिला,
लोग उसपर ऐसे झपटने लगे है।
दुश्मनी हो जैसे बरसों की हमसे,
लोग वफाएँ ऐसे समेटने लगे है।
उम्मीदें भी मुंतज़िर रहेंगी ताउम्र,
चर्चे-इश्क़ के ऐसे पलटने लगे है।
©2014-कॉपीराइट//खामोशियाँ//मिश्रा राहुल
रविवार, 9 नवंबर 2014
चिट्ठी टु वैकुंठधाम
सेवा में,
श्रीमान विधाता,
वैकुंठधाम
स्वर्गलोक-000000
श्रीमान विधाता,
वैकुंठधाम
स्वर्गलोक-000000
महोदय,
सविनय निवेदन है कि हम पृथ्वी वासी आपके दिये गए कुछ नियमो से काफी समस्याओं में उलझते जा रहे। कुछ दो अगरबत्ती और कपूर लेके परेशान रहते तो कोई दो-चार किलो लड्डू-पेंडे कि बात कर आपको फुसला जाता। कोई अपनी नौकरी को लेकर आसंकित है तो कोई अपनी छोकरी को लेकर आपसे गुहार लगाता। आपने जितने भी अवस्थाए बनाई: बाल्यावस्था...युवावस्था...वृद्धावस्था..हर अवस्था में ही इंसान को ढेरो पापड़ बेलने पड़ते। कोई आलू का बेलता तो कोई उरद का, पर उसको बेलने में हमारा ही तेल निकाल आता।
आप ऐसा क्यूँ नहीं कर देते की सारे धाम को इकठ्ठा कर एक जगह बसा दीजिये। ना कोई वैष्णो देवी जाए ना कोई अमरनाथ। ना कोई छप्पन भोग चढ़ाए ना कोई बस चावल का आधा दाना। आखिर आपको इन सबकी क्या ज़रूरत या यूं कहे भारतवासी लोग सबको पैसा खिलाते खिलाते आपको भी तो नहीं ललचा देते। वैसे भी आप सारे देवता लोग भारत में ही तो जन्म लिए है आखिर हमारे पूर्वज ही तो ठहरे।
अंत में मैं बस यही कहूँगा की कोई आसान सा उपाय बताए की जिससे हमारी समस्याओं का समाधान सुचारु रूप से हो जाए।
अगर मैं कुछ भी अनर्गल बोल गया हूँ तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। लगता है अब अगले हफ्ते हमको तो पाँच किलो लड्डू और १०१ बार हनुमान चालीसा मारनी होगी वरना मैं तो गया।
आप ऐसा क्यूँ नहीं कर देते की सारे धाम को इकठ्ठा कर एक जगह बसा दीजिये। ना कोई वैष्णो देवी जाए ना कोई अमरनाथ। ना कोई छप्पन भोग चढ़ाए ना कोई बस चावल का आधा दाना। आखिर आपको इन सबकी क्या ज़रूरत या यूं कहे भारतवासी लोग सबको पैसा खिलाते खिलाते आपको भी तो नहीं ललचा देते। वैसे भी आप सारे देवता लोग भारत में ही तो जन्म लिए है आखिर हमारे पूर्वज ही तो ठहरे।
अंत में मैं बस यही कहूँगा की कोई आसान सा उपाय बताए की जिससे हमारी समस्याओं का समाधान सुचारु रूप से हो जाए।
अगर मैं कुछ भी अनर्गल बोल गया हूँ तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। लगता है अब अगले हफ्ते हमको तो पाँच किलो लड्डू और १०१ बार हनुमान चालीसा मारनी होगी वरना मैं तो गया।
आपका सेवक
सम्पूर्ण पृथ्वीवासी
(चिट्ठी भगवान के नाम)
सम्पूर्ण पृथ्वीवासी
(चिट्ठी भगवान के नाम)
माँ
गिरते गए हम उठकर चलना सिखाया,
जिल्लत के अंधेरों से उठना सिखाया...!!
ख्वाइश में इतनी की अल्लाह दुआ करे...
दुआ हथेली पर रख ढंकना सिखाया...!!
उपवास भी रखा खूब मन्नत कमाया,
घर के भी काम कर जूजना सिखाया...!!
जिद्दी थे कितना पकड़ बैठ भी जाते थे,
हर खुशी को मुंह रख चखना सिखाया...!!
बहस हुई अक्सर चिल्ला पड़े हम भी,
हँस-हंसकर फिर गले लगना सिखाया...!!
चुप रहे हम दिन भर कुछ भी ना कहा,
सीने से लगाकर सब कहना सिखाया...!!
आँखों की नींद तक किसी कोने उतार,
सारी रात जाग सपने देखना सिखाया....!!
आज खड़े हैं अपने पैरों पर हम सब,
उनके उम्मीदों का फल कहाँ लौटाया...!!
©कॉपीराइट-खामोशियाँ // 09-नवम्बर-२०१४
- मिश्रा राहुल // (ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
शनिवार, 8 नवंबर 2014
ज़िंदगी की लाईम लाइट
ज़िंदगी
की लाईम लाइट,
में तनहा बैठकर देखिये..!!
गुलाबी अरमान
कहीं किताबों के बीच
मुरझा के जरूर बिखरे होंगे....!!!
कुछ
सवालों के जवाब
अक्सर सुलगती अंगीठी
तले राखों में मिलते होंगे....!!!
वादों से
पोटली फटी मिलेगी
जहाँ जगह-जगह से
कसमें गिरती दिखाई देंगी....!!
वक़्त अंधी
दौड़ में भागते दिखेगा...
छूटते दिखेंगे सपने जो आपने
बुने होंगे कभी साथ मिल बैठकर...!!
कभी ज़िंदगी
की लाईम लाइट,
में कभी तो तनहा बैठकर देखिये..!!
©कॉपीराइट-खामोशियाँ-०८-नवम्बर-२०१४
गुरुवार, 6 नवंबर 2014
दर-बदर
दर्द से मिले तो बाज़ार खोजते हैं,
रूठे दरिया को हज़ार खोजते है।
चर्चे गिने लें तो बहुत कम मिलेंगे,
कहने को कितने लाचार खोजते हैं।
दर-बदर फिरते हैं टूटे सपने थामे,
दिल को सिलने औज़ार खोजते हैं।
नशे में रहे तो दिक्कत कहाँ होती,
टूटे सिगार को बीमार खोजते है।
गिरते पलकों के रेशों उलझ कर,
लकीरें को पलट इशरार खोजते हैं।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०४-नवंबर-२०१४)
गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014
तजुर्बा
जीने का नया तजुर्बा सिखाता गया,
साथ चलकर रास्ता दिखाता गया...!!
अड़चने थी कितनी सफर में लिपटी,
रात रुककर दांस्ता सुनाता गया....!!
नज़्म जुबान से उतार कर देखता,
हाथ पकड़े रहता लिखाता गया...!!
लत लग गयी खूब बातें बनाने की,
चुप रहकर रिश्ता बनाता गया....!!!
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(३०-अक्तूबर-२०१४)(डायरी के पन्नो में)
आवाज़
आवाज़ जो है अगर तो बोलो भी,
दिल में ना रखो जुबान खोलो भी।
वक़्त जब बस में नहीं तो क्या करे,
जाम की भट्टी से जहान तौलो भी।
मुकद्दर ज़िंदगी की चाभी छोड़ा,
जेब से निकाल अरमान खोलो भी।
यादों के गुलदस्ते तो मोती गिराते;
धागे में डालकर वादे पिरोलो भी।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(२९-अक्तूबर-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
नाकाम
नाकाम हो जाए गर तो क्या करे,
वक़्त जोड़ दें या फिर शिकवा करे।
कशिश तो रहती हर बातों में ऐसी,
दिल रोक लें या फिर चलता करे।
वजूद भी घिसटता है दर-बदर ऐसे,
रिश्ते मोड दें या फिर बहका करे।
आदत पड़ी है तो बदल कैसे पाएगी,
आँखें खोल दें या फिर चहका करे।
ढूंढने पर खुदा में भी कमी मिलेगी,
आज छोड़ दें या फिर झगड़ा करे।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(२९-अक्तूबर-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
शनिवार, 25 अक्टूबर 2014
यादों की सिनेमैटोग्राफी
कभी कभी...
मन होता है...
यादों की स्क्रीनप्ले...
निकाल कैद कर लूँ....!!
सारे के सारे
एहसासों को डाइलॉग
देकर रेकॉर्ड करा लूँ...!!
एक एक क्लिप...
एक एक सांस जैसी...
ताज़ी है अभी भी जेहन में...!!
कभी कार्बन...
रखों तो जरूर...
छप जाएंगे सारे अल्फ़ाज़...!!
ढेरों गपशप के
इर्द-गिर्द चलती....
खुशनुमार सिनेमैटोग्राफी....!!
चेहरों पर
लिपटे इमोशन..
ढेरों कमेरा एंगल...
खुद-ब-खुद ही
तैयार करते जाते...!!
सुनहरे
लम्हों को बार बार
देखने का जी करता...!!
आखिर
कोई करता...
क्यूँ नहीं इन
खूबसूरत लम्हों की एडिटिंग...!!
©खामोशियाँ-2014//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(25-अक्तूबर-2014)
शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014
आजकल
अपने ही को देखकर वो शर्माने लगे है,
आईने भी आजकल नज़र छुपाने लगे है।
आँखों की खेतों में कितने ख्वाब उगते,
दिल की डाली पर फूल मुस्काने लगे है।
वादों की पोटली यादों से ही भरती जाती,
साये उजालों के दामन से लगाने लगे है।
कहना तो रहता कितना कुछ एक बार में,
जुबां खामोश रहते इशारे समझाने लगे हैं।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(२४-अक्तूबर-२०१४)
शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014
धोखा
नकाब...फरेब...
धोखा...साजिश...!!
सुबह उठो तो
बारिश का धोखा,
चमकती रात में
अमावस का धोखा...!!
अकेले पहिये पर
घिसटता इंसान,
जिसको मिलता
कंकड़ का धोखा...!!
बसंत खड़ी पास
फिर भी मिलता,
अक्सर गुलों के
बिखरने का धोखा...!!
सुख के वक़्त में
मिला दर्द का धोखा,
जीत की स्वाद में
रहता हार का धोखा...!!
ज़िंदगी क्या है ??
साजिश या धोखा ??
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(१७-अक्तूबर-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
सोमवार, 13 अक्टूबर 2014
रूबिक्स क्यूब
ज़िंदगी
रूबिक्स क्यूब
जैसी घूमती रहती।
लाल के इर्द गिर्द,
हरे रिश्ते उलझे रहते।
सफ़ेद शांत छुपा,
अकेले बैठा रहता।
पीला जिद्दी ठहरा,
नीले का पीछा करता।
जितना
सुलझाना चाहो,
उतना उलझती जाती।
अपने कुछ पास आते,
तो दूसरे उसे बिगाड़ देते।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
शनिवार, 11 अक्टूबर 2014
जन्नत
नज़रों में कैसा इशारा हो गया,
दिल मेरा कहाँ तुम्हारा हो गया।
पलट कर खोजते तुझे रास्तों में,
मेरा मन आज आवारा हो गया।
जुगनू चुराता रहा रंगीन रातों से,
अंधेरों में वहाँ सितारा हो गया।
सपनों में देखा था जन्नत जैसा,
प्यारा एक जहाँ हमारा हो गया।
मुकद्दर आया खुद पास चलके,
रूठता था कभी बेचारा हो गया।
डूबते रहा था जहाज भी दरिया में,
मन्नत से आज किनारा हो गया।
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०७-अक्तूबर-२०१४)
मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014
Happy Teachers Day : A Film by Maestro Productions
टूटी पेंसिल....पुराने शार्पनर....कलर पेंसिल....चार लाइनर कॉपी....!!
नन्हें हाथो में अनगिनत सपने.....उनको पूरा करने के लिए तैयार एक शख्स पूरी तल्लीनता के साथ...!!!
जब पेंसिल पकड़ अक्षर लिखाते...उनके हाथ में वो नन्हें हाथ समा जाते...दिल में एक विश्वास रहता...गलत रास्तों पर कदम ना भटकने देंगे....
रोक लेंगे....
मार कर... पीट कर...दुलार कर...!!!
चाहे जैसे भी बस....उनके आँखों के सपनों को पहचानते...उन्हे ज़िंदगी के अनुभव बांटते....!!
उन्ही अनुभवों के बीज ऊपर आकार लेने लगते... और एक दिन उस पर मीठे फल लगते....पर तब तक वो शक्स शायद उनके फल चखने के लिए पास ना होता...!!!
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हॅप्पी टीचर डे....
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014
हकीकत
दिल की दरिया कूदकर तराना ढूंढिए,
आप भी कभी हंसने का बहाना ढूंढिए।
ज़िंदगी संवर जाएगी पलभर में ही,
यादों की बस्ती से ऐसा घराना ढूंढिए।
ख्वाब में देखा तो हकीकत भी होगा,
दिन के उजाले में कभी फसाना ढूंढिए।
आप ही के सिक्के निकले हर जगह,
नक्शे में डूबकर ऐसा जमाना ढूंढिए।
बातों में रहते जिसके चर्चे आजकल,
आँखों से पूछकर ऐसा सयाना ढूंढिए।
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०४-अक्तूबर-२०१४)
दलील
दिल भी अब कहाँ खामोश बैठता है,
वक़्त की शाखों पर बेहोश बैठता है।
धड़कता रहता है सीने में हर पहर,
पूछ उससे कितना मदहोश बैठता है।
खोते है लफ्ज गहराइयों में किसी के,
रोज़ तभी लेकर शब्दकोश बैठता है।
दलीलें चलती हर रोज़ मुकदमे की,
मुकद्दर लिए रोज़ निर्दोष बैठता है।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०३-अक्तूबर-२०१४)
इंतज़ार
मूर्तियों में भगवान खोजते है,
गलियों में इंसान खोजते है।
इंतज़ार करते है अकेले घर,
अपनों में मेहमान खोजते है।
पूछते कहाँ खैरियत अब तो,
रास्तों में सलाम खोजते है।
तोड़ते है दिल उम्मीदों का,
सपनों में जहान खोजते है।
टूट के बिखरती ज़िंदगी में,
किस्तों में अरमान खोजते है।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो में)(०२-अक्तूबर-२०१४)
गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014
अपना
दिन में भी सपना सा लगता है,
कोई आज अपना सा लगता है।
कदम बहकते हुए दिखते है मेरे,
कोई साज अपना सा लगता है।
चेहरे महकते हुए दिखते है मेरे,
कोई राज अपना सा लगता हैं।
नखरे बलखते हुए दिखते है मेरे,
कोई ताज अपना सा लगता है।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (२७-सितंबर-२०१४)
शनिवार, 27 सितंबर 2014
हमदर्द
टूट जाए तो जता दीजिये,
रूठ जाए तो मना लीजिये।
यादों की बातें याद रहती,
भूल जाए तो सुना लीजिये।
वक़्त अजीब है बुरा नहीं,
लूट जाए तो चुरा लीजिये।
वादों की गठरी लादे बैठे,
फूट जाए तो उठा लीजिये।
दर्द में ऐसा हमदर्द खोजा,
छूट जाए तो बुला लीजिये।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(२६-सितंबर-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
गुरुवार, 11 सितंबर 2014
बेवजह
सुबह ऐसी इशारे लिख रही है।
बहकी बयार रुकी-रुकी सी है,
धूप ऐसी चौबारे खिल रही है।
मगन है भौरें अपने गुंजन में,
भूल ऐसी कतारे मिल रही है।
जलन है लोगों के ख्वाबों में,
धूल ऐसी दीवारे सिल रही है।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (११-सितंबर-२०१४)
सोमवार, 8 सितंबर 2014
परख सकूँ
अपना कहूँ या फिर गैर कह सकूँ,
पैमाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
कच्चे खिलौने टूट मिट्टी मिलते,
बहाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
नकाब दर नकाब ओढ़े बैठे लोग,
मनाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
घड़ी थम जाती है किसी के जाते,
घुमाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
गमों की गठरी अब सर चढ़े बैठी,
सुनाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
सुराख हो चुकी है अब अंदर तक,
छिपाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०८-सितम्बर-२०१४)
गुस्सा
मुंह फुलाए या हम गुस्सा करे।
ढूंढ रहे आज भी लोग ऐसे हम,
जिन पर जीभर हम गुस्सा करे।
खो जाते मेरे हिस्से के सितारे,
टूटते जाए वो हम गुस्सा करे।
भूल ना जाए खो ना जाए ऐसे,
मुझे मनाए गर हम गुस्सा करे।
वक़्त बदलता है तो बदल जाए,
मन ना भाए तो हम गुस्सा करे।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०८-सितंबर-२०१४)
ख्वाब
चेहरे रातों में ऐसे भी तपते हैं।
गुमनामी में चिराग लेके खोजते,
मोहरे राहों में ऐसे भी सजते हैं।
पलभर में बदलते पैंतरा अपना,
नखरे बाहों में ऐसे भी लखते हैं।
बात हो तो कोई भूले भी कैसे,
पहरे यादों में ऐसे भी चलते हैं।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०८-सितंबर-२०१४)
प्रेम-पत्र बनाम मैसेज
प्रेम का महत्व दिन बदिन कम होने से मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया आखिर इस बात के पीछे सच्चाई क्या है। दिमाग पर काफी ज़ोर डालने पर मालूम चला की पूरा माजरा आज की बदलती तकनीक का है।
प्रेम-पत्र की जगह मैसेज ने ले ली है। जिसमे ना प्रेम होता ना पत्र। हाथ की लेखनी से लेकर पत्र की खुशबू तक सारे गवाही देते उनके साथ होने की। वक़्त लगता तो लग जाए एक हफ्ते दो हफ्ते में जवाब आते। उसी रंगबिरंगे लिफाफे में। रोज़-रोज़ अपने पत्र की इंतज़ार में डाकिया चाचा की सलामती पूछी जाती। वो भी मुस्कुरा के बस इतना कह देते बहू का खत अभी आया नहीं लल्ला।
ये हफ्ते-हफ्ते की बेचैनी, और कुछ सोचने का समय ही कहाँ देती। बस सोचते रहते उनकी सुंदर सुंदर लेखनी में लिपटे उनके भोले भोले जवाब। गुलाबी रंग के लिफाफे गुलाब जैसे महकते उनके बालो की तरह। एक एक हफ्ते पर हाल-चाल जानना आज के समय के हिसाब से तो बड़ा दुर्लभ चित्रण करता। पर उसमे भी अपना मज़ा था।
मोची/दर्जी/माली हर किसी को ख्याल रहता। सब अपनी अपनी तरफ से मदद की हाथ बढ़ाने को तैयार रहते। और हो भी क्यूँ ना प्रेम तो पूजा है। कभी दर्जी काका उनके सूट की चर्चा करते तो मोची चचा उनके सैंड़िल। माली दादा तो अपने गुलाब लिए आते पर शाम को उनको झरता देख रोने से लग जाते।
बरस बीत जाते मुलाक़ात किए/देखे उन्हे जमाने हो जाते। एक झलक खातिर मीलों दूर पैदल चलकर आते और पता चलता आज वो नानी के घर गयी है। पैरो के छाले मुंह चिढ़ाते और दिल उनपर फिर अपने प्यार को पाने के चाहत की लेप लगा भर देता।
लेकिन आजकल के परिवेश में तो फेसबुक/व्हाट्सएप/गूगल प्लस इस बेचैनी को बढ़ने कहाँ देते। सारी बातें तुरंत साफ करने से सोचने के समय में अभाव हो जाता और इस वजह से लोग अनर्गल कर जाते।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
शुक्रवार, 5 सितंबर 2014
हॅप्पी टीचर डे....
टूटी पेंसिल....पुराने शार्पनर....कलर पेंसिल....चार लाइनर कॉपी....!!
नन्हें हाथो में अनगिनत सपने.....उनको पूरा करने के लिए तैयार एक शख्स पूरी तल्लीनता के साथ...!!!
जब पेंसिल पकड़ अक्षर लिखाते...उनके हाथ में वो नन्हें हाथ समा जाते...दिल में एक विश्वास रहता...गलत रास्तों पर कदम ना भटकने देंगे....
रोक लेंगे....
मार कर... पीट कर...दुलार कर...!!!
चाहे जैसे भी बस....उनके आँखों के सपनों को पहचानते...उन्हे ज़िंदगी के अनुभव बांटते....!!
उन्ही अनुभवों के बीज ऊपर आकार लेने लगते... और एक दिन उस पर मीठे फल लगते....पर तब तक वो शक्स शायद उनके फल चखने के लिए पास ना होता...!!!
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हॅप्पी टीचर डे....
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
सोमवार, 1 सितंबर 2014
शुक्रगुजार हूँ
रास्ते पे खड़ा
कदम चाप गिन रहा।
दर्द
अपनी पोटली
सौपने को मजधार खड़ा।
रोज़ की
गुजरती ज़िंदगी ने
अचानक राइट-टर्न* ले लिया।
गम..तनहाई...
अब मेरी
शागिर्द नहीं ठहरी।
नए रास्तों नें
मुझमें गजब
उम्मीद जागा दिया।
हवाएँ...तस्सवुर....
ख़्वाब... तबस्सुम....
मेरे सिपाही बन गए।
शुक्रगुजार हूँ,
एक झटके में,
ज़िंदगी से लड़ना,
कितना आसान कर दिया।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०१-सितंबर-२०१४)
हालत
दरिया में जितने ठिकाने ढूंढ लाए।
जाने कैसी खोज में निकले हम,
शहर से पुराने घराने ढूंढ लाए।
हालत ने रुसवा किया इस कदर,
बिखर के उतने जमाने ढूंढ लाए।
कमी हो गयी मुहल्लों के प्रेम की,
निकल के उतने दीवाने ढूंढ लाए।
कह सके दिल की बात औरों से,
सफर से उतने सयाने ढूंढ लाए।
________________________
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०१-सितंबर-२०१४)
शनिवार, 30 अगस्त 2014
पहचान
देखने को सारे जमाने घूम आए,
कहने को सारे पुराने ढूंढ लाए।
मिलते कहाँ है हर सींप में मोती,
खोजने को सारे बहाने ढूंढ लाए।
पहचान होती ही गयी अपनों की,
सहने को सारे ठिकाने ढूंढ लाए।
धूप गलियों में आई भी तो कैसी,
जलने को सारे फसाने ढूंढ लाए।
ऊब चुके ज़िंदगी की बेरहमी से,
मिलने को सारे तराने ढूंढ लाए।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (३०-अगस्त-२०१४)
इंसानियत
अस्तित्व....वजूद....
टूट रहा धीरे धीरे...मिट रहा मानव जाती पर से भरोसा। इंसानियत का गला घोंटा जा रहा। खतरे के निशान पार कर रही बुराई। हावी है महत्वाकांछा...हावी है खुद की व्यक्तिगत लोभी भावना। सरेयाम चौराहे पर नीलाम की जा रही बरसों की सजाई सादगी।
अपना...पराया....दोस्त...दुश्मन....
सब एक जैसे दोस्ती करूँ तो दुश्मनी को जन्म दूँ....दुश्मनी करूँ तो इंसानियत का खून होगा....अपना कहूँ तो हक़ कितना दूँ....पराया कहूँ तो दलील क्या दूँ...!!
विश्वास....डगमगाया है.....
उम्मीद है दुबारा पुराने तरीके से लौट सकूँ...बार बार के टूटने पर गांठ पर जाती...और वो गांठ खुलने लगती है समय समय पर...!!!
रिश्तों में गांठ की जगह ही नहीं पर लोगों का क्या वो अपनी बातें कह कर निकाल जाते पर मेरे दिमाग पर गहरा असर करता ये सब...!!!
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
एहसास
शिकायत...दुलार...प्रेम...डांट....!!
दूर से ही इतने सारे इमोशन की स्माइली बनाए बिना ही चेहरे पर कई सारे भाव उतर आए।
चाय की गिलास एक हाथ में कसकर पकड़े। दूसरे में सुनहरे रंग की जीरा युक्त बिसकुट लिए। साथ में कुछ मीठी मीठी गपशप। हल्की हल्की चुस्की के साथ हल्की हल्की वार्तालाप। चेहरे की चमक से हर कोई अंदर की बात की गहराई का अंदाजा आसानी लगा जाए।
ना समय का ख्याल....ना जगह का बवाल...खो जाए ऐसे की गुम हो जाए रास्ते। फिर पूछ कर आना पड़े उन्ही रास्तों को। अगल - बगल की चिल्ल-पों सुनाई ना दें हल्की आहट से जुबान की अगली बोल परख ले। दर्द में महसूस करे खुशी मैं झूम जाए। कुछ तो रहता है शायद कुछ तो रहता है।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
कान और कंधे के बीच में मोबाइल फोन आजकल किसी सैंडविच से कम नहीं लगता।
चाय की गिलास एक हाथ में कसकर पकड़े। दूसरे में सुनहरे रंग की जीरा युक्त बिसकुट लिए। साथ में कुछ मीठी मीठी गपशप। हल्की हल्की चुस्की के साथ हल्की हल्की वार्तालाप। चेहरे की चमक से हर कोई अंदर की बात की गहराई का अंदाजा आसानी लगा जाए।
ना समय का ख्याल....ना जगह का बवाल...खो जाए ऐसे की गुम हो जाए रास्ते। फिर पूछ कर आना पड़े उन्ही रास्तों को। अगल - बगल की चिल्ल-पों सुनाई ना दें हल्की आहट से जुबान की अगली बोल परख ले। दर्द में महसूस करे खुशी मैं झूम जाए। कुछ तो रहता है शायद कुछ तो रहता है।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
चाँद छुपा है
वक़्त की
सरगोशी पकड़,
कुछ गुनगुना रहा था।
प्यारा
चंदा दूर से
सुन रहा कान लगाए।
चुप है,
बोलता भी नहीं,
जाने क्या समझा।
अचानक
से छुप गया
बादलों के पीछे।
अब लापता है,
नाराज़ है लगता हमसे।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (२७-अगस्त-२०१४)
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बरसात में भीगती शाम में अकेले तनुज अपनी दूकान में बैठा रास्ता निहार रहा था सुबह से एक भी कस्टमर दुकान के अन्दर दाखिल नहीं हुआ। तनुज से ब...
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सूनी वादियों से कोई पत्ता टूटा है, वो अपना बिन बताए ही रूठा है। लोरी सुनाने पर कैसे मान जाए, वो बच्चा भी रात भर का भूखा है। बिन पिए अब...