भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
गुरुवार, 6 नवंबर 2014
दर-बदर
दर्द से मिले तो बाज़ार खोजते हैं,
रूठे दरिया को हज़ार खोजते है।
चर्चे गिने लें तो बहुत कम मिलेंगे,
कहने को कितने लाचार खोजते हैं।
दर-बदर फिरते हैं टूटे सपने थामे,
दिल को सिलने औज़ार खोजते हैं।
नशे में रहे तो दिक्कत कहाँ होती,
टूटे सिगार को बीमार खोजते है।
गिरते पलकों के रेशों उलझ कर,
लकीरें को पलट इशरार खोजते हैं।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०४-नवंबर-२०१४)
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बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...सभी अशआर बहुत उम्दा...
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