भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
मंगलवार, 11 नवंबर 2014
मुंतज़िर
आंसुओं के दाम उलटने लगे है,
आरज़ू जब ऐसे सिमटने लगे है।
कलम कत्ल करते है आजकल,
दर्द टूटकर ऐसे लिपटने लगे है।
कल चाँद हिस्सों में पड़ा मिला,
लोग उसपर ऐसे झपटने लगे है।
दुश्मनी हो जैसे बरसों की हमसे,
लोग वफाएँ ऐसे समेटने लगे है।
उम्मीदें भी मुंतज़िर रहेंगी ताउम्र,
चर्चे-इश्क़ के ऐसे पलटने लगे है।
©2014-कॉपीराइट//खामोशियाँ//मिश्रा राहुल
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आज 13/नवंबर /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता !!
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