भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
गुरुवार, 27 नवंबर 2014
आओ फिर से मुठ्ठी बांधे
आओ
फिर से मुठ्ठी बांधे....
आओ
फिर से खेल खेले....!!!
कभी
राजा निकाले...
कभी
फ़कीर निकाले...!!!
कभी
वादें निकाले....
कभी
यादें निकाले....!!!
कभी
नींदें निकाले....
कभी
रातें निकाले....!!!
कभी
चोर निकाले....
कभी
सिपाही निकाले...!!!
कभी
सन्डे निकाले...
कभी
हॉलिडे निकाले....!!!
आओ
फिर से उंगलियाँ बांधे....
आओ
फिर से खेल खेले....!!!
©कॉपीराईट - खामोशियाँ - २०१४ - २७/नवम्बर/२०१४
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आपकी लिखी रचना शनिवार 29 नवम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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