भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 21 नवंबर 2014
मैं हार मानता।
चल मैं
हार मानता।
अब तो
बंद कर दे ना
बरसों पुराना
लुका-छिपी का खेल।
बहुत
तलाशा तुझे,
फ़लक में
सितारों के बीच।
क्षितिज में
बहारों के बीच।
मिली ना
मुझे तू कहीं पर।
बालों में रंगों के
लाले पड़ गए,
आँखों के कटोरे में
छाले पड़ गए।
सपनों नें
रास्ते बदल लिए,
वक़्त नें
वास्ते बदल लिए।
उम्मीद थी
कभी तो
टिप मारेगी तू।
उम्मीद थी
कभी तो
जीत मानेगी तू।
हाँ चल मैं ही
हार मानता हूँ।
अब तो
बंद कर देना
बरसों पुराना
लुका-छिपी का खेल।
©कॉपीराइट-खामोशियाँ-२०१४-मिश्रा राहुल
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