भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014
तजुर्बा
जीने का नया तजुर्बा सिखाता गया,
साथ चलकर रास्ता दिखाता गया...!!
अड़चने थी कितनी सफर में लिपटी,
रात रुककर दांस्ता सुनाता गया....!!
नज़्म जुबान से उतार कर देखता,
हाथ पकड़े रहता लिखाता गया...!!
लत लग गयी खूब बातें बनाने की,
चुप रहकर रिश्ता बनाता गया....!!!
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(३०-अक्तूबर-२०१४)(डायरी के पन्नो में)
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बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंबहुत सही!
जवाब देंहटाएंBahut sunder !!
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