भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014
आजकल
अपने ही को देखकर वो शर्माने लगे है,
आईने भी आजकल नज़र छुपाने लगे है।
आँखों की खेतों में कितने ख्वाब उगते,
दिल की डाली पर फूल मुस्काने लगे है।
वादों की पोटली यादों से ही भरती जाती,
साये उजालों के दामन से लगाने लगे है।
कहना तो रहता कितना कुछ एक बार में,
जुबां खामोश रहते इशारे समझाने लगे हैं।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(२४-अक्तूबर-२०१४)
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