भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014
नाकाम
नाकाम हो जाए गर तो क्या करे,
वक़्त जोड़ दें या फिर शिकवा करे।
कशिश तो रहती हर बातों में ऐसी,
दिल रोक लें या फिर चलता करे।
वजूद भी घिसटता है दर-बदर ऐसे,
रिश्ते मोड दें या फिर बहका करे।
आदत पड़ी है तो बदल कैसे पाएगी,
आँखें खोल दें या फिर चहका करे।
ढूंढने पर खुदा में भी कमी मिलेगी,
आज छोड़ दें या फिर झगड़ा करे।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(२९-अक्तूबर-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
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