भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014
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क्या बात है.....बहुत ही खास एहसासों को समेटे हैं यह पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंbahut khubsurat likha hai aapne rahul ji
जवाब देंहटाएंmere blog par bhi aapka swagat hai
http://iwillrocknow.blogspot.in/
bahut hi sundar rachana........
जवाब देंहटाएंsundar rachna
जवाब देंहटाएंयह सपना अपना बना रहे।
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