भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 11 अक्टूबर 2014
जन्नत
नज़रों में कैसा इशारा हो गया,
दिल मेरा कहाँ तुम्हारा हो गया।
पलट कर खोजते तुझे रास्तों में,
मेरा मन आज आवारा हो गया।
जुगनू चुराता रहा रंगीन रातों से,
अंधेरों में वहाँ सितारा हो गया।
सपनों में देखा था जन्नत जैसा,
प्यारा एक जहाँ हमारा हो गया।
मुकद्दर आया खुद पास चलके,
रूठता था कभी बेचारा हो गया।
डूबते रहा था जहाज भी दरिया में,
मन्नत से आज किनारा हो गया।
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०७-अक्तूबर-२०१४)
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