भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014
धोखा
नकाब...फरेब...
धोखा...साजिश...!!
सुबह उठो तो
बारिश का धोखा,
चमकती रात में
अमावस का धोखा...!!
अकेले पहिये पर
घिसटता इंसान,
जिसको मिलता
कंकड़ का धोखा...!!
बसंत खड़ी पास
फिर भी मिलता,
अक्सर गुलों के
बिखरने का धोखा...!!
सुख के वक़्त में
मिला दर्द का धोखा,
जीत की स्वाद में
रहता हार का धोखा...!!
ज़िंदगी क्या है ??
साजिश या धोखा ??
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(१७-अक्तूबर-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
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कल 19/अक्तूबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
वाह …मन के कोमल भावो का बहुत सुन्दर चित्रण किया है…………बेहद शानदार प्रेममयी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
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