भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014
हकीकत
दिल की दरिया कूदकर तराना ढूंढिए,
आप भी कभी हंसने का बहाना ढूंढिए।
ज़िंदगी संवर जाएगी पलभर में ही,
यादों की बस्ती से ऐसा घराना ढूंढिए।
ख्वाब में देखा तो हकीकत भी होगा,
दिन के उजाले में कभी फसाना ढूंढिए।
आप ही के सिक्के निकले हर जगह,
नक्शे में डूबकर ऐसा जमाना ढूंढिए।
बातों में रहते जिसके चर्चे आजकल,
आँखों से पूछकर ऐसा सयाना ढूंढिए।
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०४-अक्तूबर-२०१४)
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बहुत उम्दा !
जवाब देंहटाएंविजयदशमी की हार्दीक शुभकामनाएं !
शुम्भ निशुम्भ बध :भाग -10
शुम्भ निशुम्भ बध :भाग ९
वाह !
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआभार।
Bahut sunder prastuti ....dhanywad !!
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंखूबसूरत अंदाज!
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