शब्दों के बीच कागज़ का वो हिस्सा जिस पर शब्दों की वो कालिख अंकित नहीं परन्तु भावनाओ के आवेग में पिरोये गए शब्दों के मोती संगठित होकर चीखने लगे और शब्द कम होने के बाद में आकृति सजीव सामने उभरकर मस्तिष्क पटल पर छाने लगे और ऑंखें स्वयं ही अंश्रु धरा में बहती कवि की उस तस्तरी को भाप जाए जिस पर वो सवार हैं....तब समझ लेना की कविता और कवि का वास्तविक कार्य संपन्न हुआ हैं ....
भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
सोमवार, 27 अगस्त 2012
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