धुप की सर्गोसियों को सुनती,
ये शाम भी दुबकी चली जाती हैं...
बातें जाने कितने हैं उसके जेहन में,
फिरभी एक लफ्ज न डुलाती हैं...
धुंधले पड़े एक चिराग के इर्द गिर्द घूमती,
चुप चुपके अपने नयनो को सुखाती हैं...
अब उन यतीमों की चीखों को कौन सुने,
सुना हैं की रात तो मौला को भी,
नींद के पैमाने चढ़वाती हैं....
ये शाम भी दुबकी चली जाती हैं...
बातें जाने कितने हैं उसके जेहन में,
फिरभी एक लफ्ज न डुलाती हैं...
धुंधले पड़े एक चिराग के इर्द गिर्द घूमती,
चुप चुपके अपने नयनो को सुखाती हैं...
अब उन यतीमों की चीखों को कौन सुने,
सुना हैं की रात तो मौला को भी,
नींद के पैमाने चढ़वाती हैं....
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