जाने कितनी कंघी थामे हवाएं...सहला जाती बालों को...मानो कितनी नजदीकियां हो उनको हमारे रूह में आने की..इतना ऊँचा ऊँचा बोलते दो लड़ते झरने जैसे कोई देहाती दोस्त बड़े दिनों बाद मिले हो..एक दरिया भी शिथिल रहता एक तलक वरना वो भी आँख पर पट्टी बांधे...शामत आई शामत आई खेलता...बड़ी धुल से धुली अंधड़ भी गाँव में आँखों पर चश्मे टाँगे लोगो को परेशान करती...राहुल...
भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
गुरुवार, 30 अगस्त 2012
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