देख उस जलते शहर किस तरह में बैठा था मैं,
गजलों को पुडिया बनाकर बाहर फेका रहा था मैं...!!!
उन गिरते लफ्जों को इस कदर संजो लिया,
मानो उड़ते धुएं तलक उसने चेहरा ढाप रहा था मैं...!!!
कितने आईने बदन पर डाले बैठा था मैं देख मौला,
फिर भी खुद की सक्ल समझने में नाकाम हो रहा था मैं...!!!
गजलों को पुडिया बनाकर बाहर फेका रहा था मैं...!!!
उन गिरते लफ्जों को इस कदर संजो लिया,
मानो उड़ते धुएं तलक उसने चेहरा ढाप रहा था मैं...!!!
कितने आईने बदन पर डाले बैठा था मैं देख मौला,
फिर भी खुद की सक्ल समझने में नाकाम हो रहा था मैं...!!!
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