एक अर्शे से रखी थी दराज के कोने में .... वो आयातों की किताब .. !!
आखिर क्या जफा हुई पकड़ न सका ...वो आयातों का सैलाब .. !!
इन मुक्कादारों ने भी जाने कितने खीरोचे दी ए दोस्त ,
ज़ेहन में लगे महीन धागों को लहू बना गया वो ख्वाब .. !!
देख कैसे पालथीमार के बैठे हैं हर्शू ग़मों के अब्र ,
कितनी बरसातों बाद निकल पाएँगे मेरे चेहरे के टूटे नकाब .. !!
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