आज बैठा एक झील पर शाम हुए कुछ सोच रहा था...लोग अनर्गल कहते जिसे...पास था कुछ पर्चे के टुकड़े पर...एक पुरानी नीब की पेन से...छिडक छिड़क के लिखा हूँ...कुछ...!!!
इस अधेरे में भी वो....
सिसकियाँ मौजूद रहती हवाओं में...!!!
जो धुएं से लिपटे चाँद में नहाती...
हुई बह जाती हैं किसी झील में...!!!
आहट भी लहरों में...
धमनियों जैसी फडकती रहती...!!!
कोई आला थामे आये और...
नाप जाए उनको एक लिखावट में...!!!
उस पर जलकुंभी ओढ़े...
बैठी सुबह झाकती चाँद को...!!!
सिसकियाँ मौजूद रहती हवाओं में...!!!
जो धुएं से लिपटे चाँद में नहाती...
हुई बह जाती हैं किसी झील में...!!!
आहट भी लहरों में...
धमनियों जैसी फडकती रहती...!!!
कोई आला थामे आये और...
नाप जाए उनको एक लिखावट में...!!!
उस पर जलकुंभी ओढ़े...
बैठी सुबह झाकती चाँद को...!!!
अपने दर्द को बयान करने खातिर..
टकराकर लौटती बार बार...!!!
पर रोक रखती अपने जेहन में
दाबे जख्मों को ताकि निहार ले..
इस पूनम की रात को फिर आये न आये...!!!
टकराकर लौटती बार बार...!!!
पर रोक रखती अपने जेहन में
दाबे जख्मों को ताकि निहार ले..
इस पूनम की रात को फिर आये न आये...!!!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें