बातें अदब की करते हैं।
मंदिर-मस्जिद आगे करके,
चर्चे साहब सी करते हैं।
घंटे-अज़ान की राग बताके,
दंगे मजहब की करते हैं।
मिलता है क्या इनसे इनको,
रातें बेढब सी करते हैं।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(२८-जुलाई-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
सुन्दर !
जवाब देंहटाएंअच्छे दिन आयेंगे !
सावन जगाये अगन !
सत्य कहा
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