भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
रविवार, 30 नवंबर 2014
एहसासों की पेंटिंग
अकसर
कूंची मुँह में
दबा दबाकर।
कैनवस
भरती है
बेचारी जिंदगी।
सारे
ख्याल रंगों की
प्याली में घोलकर।
ब्रश
डोलाती जाती
उसे पता न होता
कब उसने क्या उकेरा।
फिर
शान बढ़ाती है
किसी अमीरज़ादे
के ड्राइंग रूम की।
आखिर
खरीदा है जो
उसने एहसासों भरी
ख्वाबों की हमारी पेंटिंग ।
कॉपीराइट © खामोशियाँ - २०१४ - मिश्रा राहुल
जरूरी हो गई
आज
फिर से
वही परफ्यूम लगाया।
आज
फिर से
चेक शर्ट पहना है।
फलक
में सितारे
कहीं गुम है।
चल
चाँद के
दुधिया बल्ब में
उन्हें मिलकर खोजेंगे।
शब
खामोश हुई
गुस्साए बैठी देख।
आजा
फिर से सबको
लतीफ़े सुनाऊंगा।
तेरी हंसी
सबकी कानों
को जरूरी हो गई।
जिद
छोड़ अब
आजा ना कहाँ है तू।
© कॉपीराइट - खामोशियाँ - (२९-नवंबर-२०१४)
- मिश्रा राहुल
गुरुवार, 27 नवंबर 2014
आओ फिर से मुठ्ठी बांधे
आओ
फिर से मुठ्ठी बांधे....
आओ
फिर से खेल खेले....!!!
कभी
राजा निकाले...
कभी
फ़कीर निकाले...!!!
कभी
वादें निकाले....
कभी
यादें निकाले....!!!
कभी
नींदें निकाले....
कभी
रातें निकाले....!!!
कभी
चोर निकाले....
कभी
सिपाही निकाले...!!!
कभी
सन्डे निकाले...
कभी
हॉलिडे निकाले....!!!
आओ
फिर से उंगलियाँ बांधे....
आओ
फिर से खेल खेले....!!!
©कॉपीराईट - खामोशियाँ - २०१४ - २७/नवम्बर/२०१४
उम्मीदों के पतंग
पतंग
लेके लाया हूँ
उम्मीदों के आज...!!
अब तो
आजा तू
फिरसे मंझे बांधे
फिरसे कोई पतंग काटे....!!!
लाल वाली
अकेली उड़ रही
कटने को बेताब तुझसे...!!
सफ़ेद
घमंडी ठहरी
आ तोड़े गुरुर उसके...!!
नीला
फलक इंतज़ार
करता है आजकल...!!
हवाएं
सूनी-सूनी पड़ी
सब खोज रहे बस....!!
वही
छींट वाली
गुलाबी पतंग
जो लापता है बरसों से...!!
पतंग
लेके लाया हूँ
उम्मीदों के आज...!!
अब तो
आजा तू
फिरसे मंझे बांधे
फिरसे कोई पतंग काटे....!!!
©खामोशियाँ-मिश्रा राहुल-(२७-नवम्बर-२०१४)
सोमवार, 24 नवंबर 2014
तराजू
कहने को तो सारे अपने दिखाई देते हैं,
रात लेटो तो सारे सपने दिखाई देते हैं।
सर्दियों की ये रात भी खामोश है इतनी,
दूर सन्नाटे लिपटे जुगनू दिखाई देते हैं।
बात कहे दें तो कुछ बात भी बन जाएगी,
गुरूर की आगोश में चेहरे दिखाई देते है।
तलाश खत्म ना होगी उम्मीदों की कभी,
हर रोज़ तराजू थामे अपने दिखाई देते हैं।
ज़िंदगी उलझ गयी है लकीरों में इतनी,
आज आवाज़ कहाँ आँसू दिखाई देते है।
बहके कदम वापस क्यूँ लाए ये बता दे,
लौट के फिर से वहीं अपने दिखाई देते हैं।
©कॉपीराइट-खामोशियाँ
मिश्रा राहुल-(२३-नवम्बर-२०१४)
शुक्रवार, 21 नवंबर 2014
बालकनी
जरा तुम
बालकनी
पर आ जाओ।
फिर हम
कागज़ लपेटे।
फिर हम
पत्थर फेंके।
आजकल के
व्हाट्सएप में
वो मज़ा कहाँ।
- मिश्रा राहुल
क्यूँ
छोटे-छोटे
रंगीन एसएमएस,
फटे पुराने
चॉकलेट के रैपर,
हर रोज
गोंजे हुए कलेंडर।
तीन शब्द
पर चार रिप्लाई
से पटे पड़े इनबॉक्स।
सिरहाने
से लिपटी
फ्रेम मे दबी तस्वीर।
अकेले ही
उससे गपशप
करती मासूम निगाहें।
वक़्त की
छन्नी में आकर
सब क्यूँ थम सा जाता हैं।
©कॉपीराइट-खामोशियाँ-२०१४-मिश्रा राहुल
सर्द हवाएँ
अक्सर
जब ये
सर्द हवाएँ
खुली खिड़की
से आकर
मेरे बाल सहलाती।
तेरी याद
फिर से दुगनी
हो जाती।
- मिश्रा राहुल
मैं हार मानता।
चल मैं
हार मानता।
अब तो
बंद कर दे ना
बरसों पुराना
लुका-छिपी का खेल।
बहुत
तलाशा तुझे,
फ़लक में
सितारों के बीच।
क्षितिज में
बहारों के बीच।
मिली ना
मुझे तू कहीं पर।
बालों में रंगों के
लाले पड़ गए,
आँखों के कटोरे में
छाले पड़ गए।
सपनों नें
रास्ते बदल लिए,
वक़्त नें
वास्ते बदल लिए।
उम्मीद थी
कभी तो
टिप मारेगी तू।
उम्मीद थी
कभी तो
जीत मानेगी तू।
हाँ चल मैं ही
हार मानता हूँ।
अब तो
बंद कर देना
बरसों पुराना
लुका-छिपी का खेल।
©कॉपीराइट-खामोशियाँ-२०१४-मिश्रा राहुल
मंगलवार, 11 नवंबर 2014
मुंतज़िर
आंसुओं के दाम उलटने लगे है,
आरज़ू जब ऐसे सिमटने लगे है।
कलम कत्ल करते है आजकल,
दर्द टूटकर ऐसे लिपटने लगे है।
कल चाँद हिस्सों में पड़ा मिला,
लोग उसपर ऐसे झपटने लगे है।
दुश्मनी हो जैसे बरसों की हमसे,
लोग वफाएँ ऐसे समेटने लगे है।
उम्मीदें भी मुंतज़िर रहेंगी ताउम्र,
चर्चे-इश्क़ के ऐसे पलटने लगे है।
©2014-कॉपीराइट//खामोशियाँ//मिश्रा राहुल
रविवार, 9 नवंबर 2014
चिट्ठी टु वैकुंठधाम
सेवा में,
श्रीमान विधाता,
वैकुंठधाम
स्वर्गलोक-000000
श्रीमान विधाता,
वैकुंठधाम
स्वर्गलोक-000000
महोदय,
सविनय निवेदन है कि हम पृथ्वी वासी आपके दिये गए कुछ नियमो से काफी समस्याओं में उलझते जा रहे। कुछ दो अगरबत्ती और कपूर लेके परेशान रहते तो कोई दो-चार किलो लड्डू-पेंडे कि बात कर आपको फुसला जाता। कोई अपनी नौकरी को लेकर आसंकित है तो कोई अपनी छोकरी को लेकर आपसे गुहार लगाता। आपने जितने भी अवस्थाए बनाई: बाल्यावस्था...युवावस्था...वृद्धावस्था..हर अवस्था में ही इंसान को ढेरो पापड़ बेलने पड़ते। कोई आलू का बेलता तो कोई उरद का, पर उसको बेलने में हमारा ही तेल निकाल आता।
आप ऐसा क्यूँ नहीं कर देते की सारे धाम को इकठ्ठा कर एक जगह बसा दीजिये। ना कोई वैष्णो देवी जाए ना कोई अमरनाथ। ना कोई छप्पन भोग चढ़ाए ना कोई बस चावल का आधा दाना। आखिर आपको इन सबकी क्या ज़रूरत या यूं कहे भारतवासी लोग सबको पैसा खिलाते खिलाते आपको भी तो नहीं ललचा देते। वैसे भी आप सारे देवता लोग भारत में ही तो जन्म लिए है आखिर हमारे पूर्वज ही तो ठहरे।
अंत में मैं बस यही कहूँगा की कोई आसान सा उपाय बताए की जिससे हमारी समस्याओं का समाधान सुचारु रूप से हो जाए।
अगर मैं कुछ भी अनर्गल बोल गया हूँ तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। लगता है अब अगले हफ्ते हमको तो पाँच किलो लड्डू और १०१ बार हनुमान चालीसा मारनी होगी वरना मैं तो गया।
आप ऐसा क्यूँ नहीं कर देते की सारे धाम को इकठ्ठा कर एक जगह बसा दीजिये। ना कोई वैष्णो देवी जाए ना कोई अमरनाथ। ना कोई छप्पन भोग चढ़ाए ना कोई बस चावल का आधा दाना। आखिर आपको इन सबकी क्या ज़रूरत या यूं कहे भारतवासी लोग सबको पैसा खिलाते खिलाते आपको भी तो नहीं ललचा देते। वैसे भी आप सारे देवता लोग भारत में ही तो जन्म लिए है आखिर हमारे पूर्वज ही तो ठहरे।
अंत में मैं बस यही कहूँगा की कोई आसान सा उपाय बताए की जिससे हमारी समस्याओं का समाधान सुचारु रूप से हो जाए।
अगर मैं कुछ भी अनर्गल बोल गया हूँ तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। लगता है अब अगले हफ्ते हमको तो पाँच किलो लड्डू और १०१ बार हनुमान चालीसा मारनी होगी वरना मैं तो गया।
आपका सेवक
सम्पूर्ण पृथ्वीवासी
(चिट्ठी भगवान के नाम)
सम्पूर्ण पृथ्वीवासी
(चिट्ठी भगवान के नाम)
माँ
गिरते गए हम उठकर चलना सिखाया,
जिल्लत के अंधेरों से उठना सिखाया...!!
ख्वाइश में इतनी की अल्लाह दुआ करे...
दुआ हथेली पर रख ढंकना सिखाया...!!
उपवास भी रखा खूब मन्नत कमाया,
घर के भी काम कर जूजना सिखाया...!!
जिद्दी थे कितना पकड़ बैठ भी जाते थे,
हर खुशी को मुंह रख चखना सिखाया...!!
बहस हुई अक्सर चिल्ला पड़े हम भी,
हँस-हंसकर फिर गले लगना सिखाया...!!
चुप रहे हम दिन भर कुछ भी ना कहा,
सीने से लगाकर सब कहना सिखाया...!!
आँखों की नींद तक किसी कोने उतार,
सारी रात जाग सपने देखना सिखाया....!!
आज खड़े हैं अपने पैरों पर हम सब,
उनके उम्मीदों का फल कहाँ लौटाया...!!
©कॉपीराइट-खामोशियाँ // 09-नवम्बर-२०१४
- मिश्रा राहुल // (ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
शनिवार, 8 नवंबर 2014
ज़िंदगी की लाईम लाइट
ज़िंदगी
की लाईम लाइट,
में तनहा बैठकर देखिये..!!
गुलाबी अरमान
कहीं किताबों के बीच
मुरझा के जरूर बिखरे होंगे....!!!
कुछ
सवालों के जवाब
अक्सर सुलगती अंगीठी
तले राखों में मिलते होंगे....!!!
वादों से
पोटली फटी मिलेगी
जहाँ जगह-जगह से
कसमें गिरती दिखाई देंगी....!!
वक़्त अंधी
दौड़ में भागते दिखेगा...
छूटते दिखेंगे सपने जो आपने
बुने होंगे कभी साथ मिल बैठकर...!!
कभी ज़िंदगी
की लाईम लाइट,
में कभी तो तनहा बैठकर देखिये..!!
©कॉपीराइट-खामोशियाँ-०८-नवम्बर-२०१४
गुरुवार, 6 नवंबर 2014
दर-बदर
दर्द से मिले तो बाज़ार खोजते हैं,
रूठे दरिया को हज़ार खोजते है।
चर्चे गिने लें तो बहुत कम मिलेंगे,
कहने को कितने लाचार खोजते हैं।
दर-बदर फिरते हैं टूटे सपने थामे,
दिल को सिलने औज़ार खोजते हैं।
नशे में रहे तो दिक्कत कहाँ होती,
टूटे सिगार को बीमार खोजते है।
गिरते पलकों के रेशों उलझ कर,
लकीरें को पलट इशरार खोजते हैं।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०४-नवंबर-२०१४)
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