भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
सोमवार, 24 नवंबर 2014
तराजू
कहने को तो सारे अपने दिखाई देते हैं,
रात लेटो तो सारे सपने दिखाई देते हैं।
सर्दियों की ये रात भी खामोश है इतनी,
दूर सन्नाटे लिपटे जुगनू दिखाई देते हैं।
बात कहे दें तो कुछ बात भी बन जाएगी,
गुरूर की आगोश में चेहरे दिखाई देते है।
तलाश खत्म ना होगी उम्मीदों की कभी,
हर रोज़ तराजू थामे अपने दिखाई देते हैं।
ज़िंदगी उलझ गयी है लकीरों में इतनी,
आज आवाज़ कहाँ आँसू दिखाई देते है।
बहके कदम वापस क्यूँ लाए ये बता दे,
लौट के फिर से वहीं अपने दिखाई देते हैं।
©कॉपीराइट-खामोशियाँ
मिश्रा राहुल-(२३-नवम्बर-२०१४)
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बहुत सुन्दर!
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