भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
रविवार, 2 फ़रवरी 2014
ज़िंदगी
ज़िंदगी के किरने परोसती हैं रूसवाई मेरी....
कदमो के नीचे ऐसे तड़पती हैं परछाई मेरी....!!!
बढ़ते कदमो से भी कहाँ कम होते है फासले....
रात को सीने तक चढ़ती है तनहाई मेरी....!!!
खामियाँ तो बहुत दामन से लगाए बैठे हमने....
रूह से अब कहाँ लिपटती है अच्छाई मेरी...!!!
एक खौफ़ सा चलता रहता ताउम्र साथ मेरे....
चुपचाप रह कर भी डराती है गहराई मेरी....!!!
©खामोशियाँ-२०१४
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ये सच मे ही ऐसा होता है।
जवाब देंहटाएंसंजय जी बिल्कुल।
हटाएंसुंदर !
जवाब देंहटाएंस्वागतम....हमारे ब्लॉग पर
हटाएंएक खौफ़ सा चलता रहता ताउम्र साथ मेरे
जवाब देंहटाएंचुपचाप रह कर भी डराती है गहराई मेरी...
इस खौफ़ को खत्म करना ही तो जीवन का प्रयास रहना चाहिए ...
बिल्कुल दिगम्बर साहब।
हटाएंबहुत खूब .....खूबसूरत नज़्म.....
जवाब देंहटाएंअदिति जी स्वागतम....खामोशियाँ के पटल पर....!!
जवाब देंहटाएंराहुल भाई हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
जवाब देंहटाएंशब्दों की मुस्कुराहट पर ....दिल को छूते शब्द छाप छोड़ती गजलें ऐसी ही एक शख्सियत है
जी बिलकुल दिगंबर साहब तो जबर्दस्त प्रतिभा के धनी आदमी हैं.... !!!
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