भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बुधवार, 29 जनवरी 2014
सफर
हर सफर मे
कितने कब्र फोड़
निकाल लेते दोनों मसीहों को....!!!
हथेलियों से रगड़
मुंह की फूँक से
उनके कपड़े उतार डालते...!!!
कुछ को
बड़ी बेरहमी से
जख्म पर नमक छिड़क
मुंह मे ड़ाल बारीकी से पीस देते....!!!
तो औरों के
गले घोंटकर
पूरे शरीर का तेल
बड़ी आसानी से निचोड़ डालते....!!!
आज भी उनकी
चीखे मौजूद है उन पटरियों पर
लाश भी मौजूद टुकड़ो मे बटीं....!!!
कल आएगा
झाड़ू मार निकालेगा हर बोगी से
फिर सिनाख्त होगी....
किसके घर का दीपक बुझा....!!!
(मूँगफली के संदर्भ मे पर आजकल की ट्रेनो की भारी भीड़ देखकर ये व्यक्तियों से अलग नहीं लगता....दोनों पीसे ही जाते बिलकुल एक जैसे)
©खामोशियाँ-२०१४
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जवाब देंहटाएंअनीता मैम यह तो बस उपमाएँ है।
हटाएंधन्यवाद सर।
जवाब देंहटाएंलाजवाब बिम्ब से जोड़ा है जीवन की हकीकत को ...
जवाब देंहटाएंस्वागत है दिगंबर साहब।
हटाएंNahut achha hai Rahul. Keep writting.
जवाब देंहटाएंगहन
जवाब देंहटाएंBahut gehri aur sadhi hui rachna..kya kahna...bahut achhe Bhai!
जवाब देंहटाएंलाजवाब।
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