भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
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कुछ ख्वाहिशें हम भी पालना चाहते हैं, थोड़ा ही सही पर रोज मिलना चाहते है। मरने का कोई खास शौक नहीं है हमें, जिंदा रहकर बस साथ चलना चाहते है...
प्रशंसनीय रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में !!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार१६ /७ /१३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है
जवाब देंहटाएंलाजवाब अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंlatest post सुख -दुःख