आज सोमवार था। सुबह के आठ बजे थे। रोनित अभी तक बिस्तर पर लेटा हुआ था। हाँ अलार्म जाने कितनी बार उसके कानो को छु के निकल गया पर रोनित उठने का नाम नहीं ले रहा था। सामने शिव मंदिर पर भजन-कीर्तन की जोरदार आवाज़ ने रोनित को जगा ही दिया।
रोनित एक छोटा सा बच्चा महज़ 12 साल का। हाँ छोटा ही उसकी माँ के लिए अब भी वो। रोनित को सुबह-सुबह मे स्कूल जाना होता था पर वो अक्सर देर से उठने की वजह से हमेशा भागता ही जाता था।
हर दिन की रूटीन की तरह आज भी मिसेज अग्रवाल सुबह उठी। पूरे घर की सफाई की, सारे मैले कपड़े धो डाले , धुले कपड़े आलमारी मे तह कर दिये, बेटे के लिए नाश्ता बनाया। ओफो इतनी सारी ऊर्जा आखिर कैसे मिलती उनको। सारे काम करने पर भी मिसेज अग्रवाल थकती नहीं। हाँ मिसेज अग्रवाल ही तो बुलाते लोग उन्हे, या फिर अग्रवाल आंटी, रोनित की मम्मी। यही सब उनके नाम है शायद। वो तो शायद अपना स्वाति नाम तक भूल गयी हैं।
आज भी रोज़ की तरह उनका खाना किसी ने नहीं खाया। बेटे को स्कूल की जल्दी थी और पति को ऑफिस की। पर कोई बुरा मान जाए तो उनका ख्याल रखा जाता मनाया जाता, पर माँ को बुरा मानने का सवाल ही नहीं पैदा होता। वो तो बिना पगार, बिना की स्वार्थ अपना काम करती। उसे ना तो बोनस की चिंता होती, ना ही एरिअर की। ना इतवार को उनकी छुट्टी होती ना किसी त्योहार को उनका आराम, बल्कि इन दिनो तो उनसे लोग एक्स्ट्रा काम करवा लेते। पर माँ किस मिट्टी की बनी होती कभी बुरा ही नहीं मानती।
शाम को भी थके हारे शांतनु अग्रवाल और रोनित आए। फिर खाना खाया और सो गए। शायद इस व्यस्त सी दिन-चर्या मे हर वो चीज थी पर बस स्वाति अग्रवाल छोड़कर। स्वाति को मायके गए भी काफी दिन हो गए थे। शायद एक बार ही गयी थी वो सात साल की शादी के बाद। पर स्वाति कभी इस बारे मे सोचती ना थी। अब तो रोनित और शांतनु अग्रवाल को उसकी लत लग गयी थी। यह अलग बात थी कि उन्हे पता नहीं था इस बाते मे बिलकुल भी।
स्वाति ने सोचा एक बार मैं इन्हे अपनी एहमियत दिखा दूँ। आज जब मिस्टर अग्रवाल ऑफिस से घर आए तो स्वाति ने अपने घर के याद आने का बहाना बना लिया। शांतनु तुरंत तैयार हो गए उसकी बात पर अभी भी शांतनु को एहसास नहीं था कि स्वाती चाह क्या रही। खैर रात बीती और सुबह सुबह 6 बजे की एक्सप्रेस से स्वाति अपने गाँव लौट रही थी। स्वाती का गाँव काफी दूर पर बसा हुआ था। पूरे 36 घंटे लग जाते थे उसे वहाँ जाने मे। स्वाति को मन मे तरह तरह के ख्याल आ रहे थे कि शायद उसने जल्दबाज़ी मे गलत कदम उठाया है। आखिर माँ जो थी पर फिर भी उसने अपने दिल पर पत्थर रख कर यात्रा जारी रखी।
स्वाती के जाते ही। रोनित और शांतनु की दिन-चर्या बुरी तरह प्रभावित हुई। दोनों देर से उठे आज नाश्ता नहीं था सुबह कि मसालेदार चाय टेबल से गायब थी। इस्त्री किए कपड़े नहीं थे। घर के तौलिये से लेकर, दूध लेने तक की ज़िम्मेदारी आ दो नाजुक कंधो पर थी। घर की हर चीज ऐसे मूक हो गयी थी कि मानो सब के सब स्वाति को पुकार रहे हो। रोनित को अब माँ सताने लगी वो हर बात पर माँ के किए काम को याद करता था। रोनित ही नहीं शांतनु को भी अब स्वाति की याद आने लगी थी। अभी स्वाति अपने घर पहुंची भी नहीं थी कि शांतनु ने उसे फोन कर दिया।
शांतनु बोले, "स्वाति कैसी हो"
स्वाति को विश्वास ही नहीं हुआ कि शांतनु ने अपने व्यस्त दिनचर्या मे से उसके हाल चाल के लिए समय निकाल लिया है।
स्वाती हड़बड़ाते हुए बोल पड़ी, "अच्छी तो हूँ, एक दिन मे क्या बिगड़ जाएगा"
शांतनु फिर शालीन लहजे मे कहे, "नहीं ऐसे ही आज तुमसे बात करने का दिल कर रहा था। कुछ अच्छा नहीं लग रहा ऑफिस मे हूँ बैठा। रोनित भी काफी परेशान हो रहा है तुम्हारे बिना। तुम कुछ दिन रहकर जल्दी चली आना ये घर तुम्हारे बिना सूना सा लगता है।"
स्वाति अपनी दांव मे सफल होती दिख रही थी। उसने बोला, "अच्छा अभी पहले पहुँचने तो दो आ जाऊंगी, फिर भी एक हफ्ते तो लगेंगे ही"
शांतनु भी थोड़े मायूस होते बोले, "एक हफ्ते अच्छा ठीक है। ख्याल रखना अपना।"
स्वाती ने शांतनु से बात करते ही अगले स्टेशन पर गाड़ी छोड़ दी और अगली गाड़ी कि प्रतीक्षा करने मे जुट गयी। आज स्वाती बड़ी खुश थी। इसलिए नहीं कि उसने सबको हरा दिया बल्कि वो तो खुश थी कि आज उसे अचानक देखकर रोनित और शांतनु कितने प्रसन्न होंगे। अभी स्वाति इसी उधेड़बुन मे थी कि उसकी गाड़ी उसे पुकारने लगी अपनी सीटी देकर, कि वो उसमे बैठकर चल दे घर कि तरफ। तरह-तरह के ख्वाब लिए, आज सर्प्राइज़ दूँगी सबको। रोनित से मिलूँगी, शांतनु भी होगा केवल 7 घंटो मे कितना कुछ बदला-बदला नज़र आ रहा था।
शांतनु और रोनित शाम को घर लौटे फिर समान अस्त-व्यस्त देखकर बड़े दुखित हुए। हर पल हर जगह बस बातों मे स्वाति अग्रवाल ही होती थी। दोनों इतने थके थे कि बाहर जाना दूर वो आते ही बिस्तर पकड़ लिए, पर भूख और नींद की जबर्दस्त टक्कर होती रही। काफी देर बाद आखिर कार जीत भूख की हुई।
अब रोनित शांतनु को ऐसे देख रहा थे, मानो पूछ रहे हो कि आखिर हमने क्यूँ इतना खराब बर्ताव किया की मम्मी चली गयी। दोनों की खामोश बातें जारी थी कि घर की बेल बजी।
डींग-डोंग.... डींग-डोंग.... डींग-डोंग....
शांतनु सोचते जा रहे थे आखिर इतनी रात को कौन होगा। घर मे स्वाति भी नहीं मैं खुद भूखा सो रहा कोई मेहमान हुआ तो बाहर से कुछ लाना पड़ेगा। ये लोग भी ना बिना टाइम आ जाते। जाने क्या क्या सोचते शांतनु ने दरवाजा खोला।
सामने थी,"वही 5'8" की काया वाली गोरी सी औरत रात जिसका राग दोनों बाप-बेटा मिलकर आलाप रहे थे। शांतनु ने उसे देखते ही गले से लगा लिया। मानो दोनों कितने जनम से मिले ना हो। रोनित भी सामने आ गया और एक सांस मे उसने सब कुछ मम्मा को ऐसे बता दिया जैसा वो कभी बचपन कभी स्कूल से आकर बताया करता था।
पाँच मिनट तक तीनों एक दूसरे से लिपट रोते रहे। भूख के सूखे खेत को तीनों ने अपनी आँसुओ से सींच दिया।
दुनिया मे कोई कितना भी बदल जाए माँ नहीं बदलती। माँ एक कम्यूनिटी है। वो अनूठी है वो बदल सकती ही नहीं। वो सच्ची होती है। आखिर तभी तो भगवान ने उसे अपना दर्जा दे रखा है।
आखिर मे मुन्नावर राना का एक शेर लिखना चाहूँगा बिना उसके ये कहानी पूरी नहीं होगी।
ख़ुदा ने यह सिफ़त दुनिया की हर औरत को बख़्शी है, कि वो पागल भी हो जाए तो बेटे याद रहते हैं।
Advance Happy Mothers Day 11 May '14
मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
माँ तो माँ ही है .... मर्मस्पर्शी पोस्ट
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही डॉ साहब।
हटाएंसुनने मे तो माँ एक लफ्ज है... पर मानने वालों के लिए पूरी दुनिया...!!
जवाब देंहटाएंहाँ विशाल सच कहा तुमने।
हटाएंBohot acha likha...dil ko Chu gya.
जवाब देंहटाएंसुष्मिता बेटा ब्लॉग पर पहली बार आने के लिए हार्दिक स्वागत।
हटाएंbahut bhavul kar ragyi aapki rachnaa.....maa ko to bete yaad rahte hain par beto ko kahan maa yaad rahti hain .ham betiyaa bebas si apni maao ko dekhti rahtee hain apne hi ghar mein pratadit hote huye
जवाब देंहटाएंये बातें generalise नहीं की जा सकती नीलिमा मैम....हाँ काफी हद तक आप सही हो पर पूरी की पूरी बेटों की बिरादरी पर सवालिया निशान लगाना सही नहीं होगा।
हटाएंकहानी काफी सीधी सीधी सी है। वो बदल नहीं सकता था। क्यूँ माँ ज्यादा विकल्प नहीं देती।
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