बादल गरज रहे, काले काले बादलो से पूरा आसमान पटा पड़ा है। मोर अपनी पंखों को फैलाकर नाचने के तैयारी मे खड़े। सूरज अपनी दुम दबाये उसे पीछे-पीछे चल रहा। कभी बाहर आता तो कभी छुप जाता। अभी लोग घरों से निकल खुशियाँ मना रहे थे कि बारिश शुरू हो गयी। सबके चेहरे पर खुशी का पुरजोर आलम, आखिर हो क्यूँ ना पिछले काफी दिनो से जो यहाँ बरसात की एक बूंद तक नसीब ना हुई थी। एक मनोहारी वातावरण तैयार हो चुका था। इतने मे ट्रेन के इंजिन की एक ज़ोर सी आवाज़ ने सत्यपाल की आँखें खोल दी।
सुबह हो चुकी थी और सामने था चटक धूप वाला तपता सूरज। सत्यपाल चिल्ला उठा "सपना था हाँ सपना था"।
सत्यपाल सिंह, लखीमपुर खीरी से करीब 45 किमी उत्तर की तरफ बसा बसतौली गाँव का एक निहायत ही गरीब गन्ना किसान। घर मे रुपए जुटाने की जुगत मे कभी सरकारी चीनी मिलों मे मजदूर की हैसियत से भी काम करते थे। नीचे जमीन खाती फसल पर सूरज काका की बेरहमी उसके जुबान पर हर समय ताज़ी रहती थी। घर मे सत्यपाल के अलावा उसकी पत्नी मंजू और उसकी एक बेटी गुड़िया थी। कभी किसी जमाने मे सत्यपाल खुद को अपने क्षेत्र के नामी किसानो मे गिनती हुए पाते थे, पर आज तो स्थिति बिलकुल पलट है। घर मे बस एक पहर ही चूल्हा जलता था, वो भी आधा अधूरा। चार लोगों की थाल हमेशा एक ही मे सजाई जाती थी। जिसमे कभी सूखा चावल होता या फिर सिर्फ रोटी। खाने के समय लोग एक दूसरे को दिलासा दे कर ही पेट भरते रहते थे।
बलरामपुर चीनी मिल की गुलारिया इकाई मे कार्यरत सत्यपाल बस किसी तरह गुजर बसर कर रहे थे। सब कुछ बीत ही रहा था किसी तरह। सत्यपाल दिन बदिन उम्र लांघते जा रहे थे। घर मे बेटी के शादी की चिंता उनका सर खाए जा रही थी। हर पहर अक्सर यही बात चलती रहती "गुड़िया की शादी हो जाए बस अपनी तो पेट काट लेंगे किसी तरह"।
मंजू सिंह स्वभाव की काफी गंभीर महिला थी। घर मे कुछ भी कमी हो पर वो शिकायत ना करती थी, बस काम चला लेती थी। एक दिन सुबह सुबह अचानक से बैठे बैठे मंजू मौके की नज़ाकत भाँपते हुए थोड़े शरारती मुद्रा मे बोले पड़ी, "अरे एहरों सुनबो!! बिटिया का बियाह कराइबो की घर बैठहें रहिबों "
सत्यपाल अपनी लहजे मे बोल पड़े, "बियाह होई!! तनिक और इंतज़ार करी लौ, बात किहेन है दिनेशवा से"
इतना बोल कर सत्यपाल अपने रोज़मर्रा की काम मे तल्लीन हो गए।
शाम को दिनेश भी आ गया। अक्सर दिनेश ही रिश्तों को पक्का-कच्चा कराता था। सब लोग बैठ गए और इतमीनान से बात करने लगे।
"ए दिनेश, कौनों नीक लाइका होय त बतावों, आपन अवकात त तू जनते हौ, दु जून के रोटी कौनों तरहियन से सेकावेले" भाभी और सत्यपाल ने एक सुर मे अपनी राय बोल दी
दिनेश ने काफी गहरी सांस ली और कुछ चार पाँच फोटो झोले के कोनो से खींच कर बाहर कर दिये।
देखते ही देखते मंजू ने एक पकड़ इशारे से ही सत्यपाल की भी राय भाँप ली।
दिनेश भी समझ गया था। गुड़िया को अब सत्यपाल बाबू अपने यहाँ और जगह नहीं देना चाह रहे थे। खैर दिनेश ने सर हिलाया और हाथ जोड़ आज्ञा मांगते हुए बोला, "ठीक है बाबूजी हम आपकी बात इन तक पहुंचा देंगे और लेनदेन आप कर लेना, हम इस पचड़े से दूर रहते है। "
दिनेश के जाने के बाद मंजू और सत्यपाल मे अच्छी ख़ासी बात चली थी कुछ दलील देती बातें, कुछ समझ भरी बातें।
कुछ रोज़ बीते। अजीत सिंह सत्यपाल के यहाँ खुद ही पधार दिये। बातें काफी हो गयी तभी, मिसेज सिंह ने कहा अरे सत्यपाल जी मेरी बिटिया से तो मिलवा दीजिये। मंजू ने तुरंत आवाज़ लगाई, "गुड़िया आजा बेटा" ।
बिलकुल मंजू की छायाचित्र की एक नन्ही गोरी सी सचमुच की चलती फिरती गुड़िया सामने आके खड़ी हो गयी। गुड़िया को तो देखते ही कोई भी रिश्ता पक्का कर ले। सर्वगुणसंपन्न जो थी।
तो आखिर कार उन्होने भी हाँ भर दी।
सत्यपाल ने झिझकते हुए पूछा,"ठाकुर साहब आप अपनी मांग भी बता दीजिएगा हम नहीं चाहते बाद मे कोई समस्या मन-मुटाव आए"
अजीत सिंह ने शालीन पलटवार किया, "सत्यपाल जी क्या बोल रहे आप, पाप करवाएँगे हम लोगों से। अभी तक जितनी पुण्य किया है सब बर्बाद हो जाएगा"।
लड़के वाले शायद दहेज की खिलाफ थे। वो तो लड़की चाहते थे सुंदर, सुशील, बुद्धिमान। मंजू-सत्यपाल की खुशी देखते बन रही थी। आखिर एक बहुत बड़ा काम जो उन्होने कर डाला था। पंडित बुलाया गया शुभ मुहूर्त मिल गया 7 जुलाई। बात पक्की हो गयी गुड़िया-विवेक की जोड़ी अच्छी जमेगी यही दिनेश ने बोलकर मुंह मीठा करवा दिया।
तैयारियां ज़ोरों पर चलने लगी। दहेज ना लेने पर भी लड़की के ज़रूरत के समान खरीदने भी तो थे। चार महीने बस बचे थे। सारी गणित अच्छी ख़ासी बना ली थी सत्यपाल ने। कुछ पैसा जमा थे उन्हे निकालने की अर्जी भी दे आई थी। सत्यपाल अब तो दुगनी मेहनत से खेत से लेकर मिल तक सब काम कर आते थे। मिल मे भी उन्हे काफी दिन से पैसे मिले नहीं थे, अब वे मांगते भी नहीं थे। सोच रहे थे अभी मिलेंगे तो खर्च हो जाएंगे कुछ दिन बाद ही मिले तो ही बेहतर।
हर तरफ खुशी का माहौल जमघट लगाए पाँव पसार चुका था। जिस घर मे कभी रौनक नहीं दिखती थी उसमे आज एक अजीब ही हलचल आ गयी थी। मुखरे खिल गए थे हर-किसी के। मंजू घूम फिर के बस गुड़िया की ही बात कर देती, उसे समझाते रहती। गुड़िया ससुराल मे ऐसे करना वैसे करना। सास की सेवा करना बड़ो की इज्ज़त करना, कोई कुछ भी बोले जवाब ना देना। आखिर एक ही तो बिटिया थी फूल जैसी उसे कैसे यून्ही छोड़ देती।
दिन इतनी तेज़ी से बीत रहा था। शादी की तारीख नजदीक बस बीस दिन बचे थे। सत्यपाल आज थोड़े परेशान से दिख रहे थे। रोज़ की तरह उन्होने आज गुड़िया को भी नहीं पूछा। सीधा कोने वाले कमरे मे चले गए। मंजू अपने काम मे इतनी व्यस्त थी की वो उन्हे देख ही नहीं पाई। पर सिसकने की आवाज़ सुन वो फौरन उस अंधेरे कमरे मे दाखिल हुई। वो कमरा अजीब सा काल रूपी नज़र आ रहा था आज, जो भी जा रहा था उस तरफ वो उसे लीलने की नीयत से आगे आ जा रहा था।
मंजू से सत्यपाल की ओर देखते पूछा,"क्या हुई गवा काहें एतना रोवत हौ"
सत्यपाल रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मंजू ने बड़ी मशक्कत के बाद वो कुछ समझ पाई।
अब मंजू भी उसी तरह रोने लगी। दोनों एक दूसरे को देख रोए ही जा रहे थे। मानो कोई पहाड़ सा टूट पड़ा हो।
सत्यपाल यही बोले जा रहा था, "गन्ना बर्बाद हो गया, हम बर्बाद हो गयी। हे ईश्वर ऐसे हमारे साथ ही क्यूँ करता। सूरज बाबा कभी कम भी जला करो काहें हमरी किस्मत मे आग लगा जाते। ऊपर से बैंक वाले भी"
यही सब बोलता सत्यपाल मिल की तरफ भागा।
पर मंजू रोती रही उसके सपनों के पर्दों पर मानो कोई कैंची मार दिया हो। जगह जगह से फट चुके पर्दो पर अब पुराने जैसी तस्वीर नहीं बन रही थी। मन मार कर मंजू बैठ गयी।
मंजू एक शब्द बोलते जा रही थी, "हमरी किस्मत मे ही ई काहें गोंज दिहे भगवान"। ये सब बोलते बोलते मंजू सो गयी।
उठी तो काफी लेट हो चुकी थी। पर सत्यपाल नज़र नहीं आ रहे थे। शाम तक अक्सर वो आ जाया करते थे। पर रात हो आई थी। अब मंजू जाए भी तो कैसे घर मे गुड़िया अकेली थी। तभी बाहर मची कोलाहल देख वो दंग रह गयी। या ये कहें की उसे विश्वास ही नहीं हुआ ऐसा। बहुत दूर किसी को घेर पूरे मुहल्ले वाले खड़े थे। शोर-शराबा चीख सब उसके विपरीत ही थे पर उसका मन अभी ये मानने को तैयार नहीं था। बस 100 कदम का ये सफर मानो 100 दिन ले रहा था, उसके कदम थक रहे थे। उसके आँखें और देखने की गवाही नहीं दे रही थी, कान सब सुन के अनसुना करना चाहते थे। पर परिस्थिति इस बार फिर मंजू की शक्ति जाँचने को तैयार खड़ी थी।
हाँ, सत्यपाल लेटे पड़े थे। वे मिल के बॉयलर मे उबलते पानी मे गिर के अपनी जान खो चुके थे। मिल के आला अधिकारियों से लेके मजदूर तक सब मंजू को दिलासा दे रहे थे। आखिर सत्यपाल ऐसे व्यक्तित्व के आदमी थे कि उनसे कोई नाराज़ हो ही नहीं सकता था, सिवाय ईश्वर से। भगवान से उनकी कभी बनी नहीं। काफी मंजर बदल गए थे। दुखों के बादल तो बस मंजू के आँगन मे अपना डेरा डाले कष्टों की बारिश किए जा रहे थे।
मंजू बेसुध हो चुकी थी। गुड़िया रोए जा रही थी। सबने मंजू-गुड़िया को सम्हाला। सत्यपाल का दाह-संस्कार किया।
बीस दिन बाद। गुड़िया की शादी हुई। हाँ बड़ी धूम-धाम से। सभी मजदूरों ने अपनी एक महीने का वेतन काट सत्यपाल की झोली मे दे दिया था। मिल मालिक ने भी काफी मदद की। शायद किसी बात की कोई कमी नहीं थी उसकी शादी मे। बस सत्यपाल नहीं थे।
शादी मे बैठी गुड़िया ये तय नहीं कर पा रही थी किसको धन्यवाद करें। अपने बाबूजी को जो उसकी लिए अमूल्य धरोहर थे, अपनी माताजी को जिसने कभी सुख का स्वाद ही नहीं चखा, या वहाँ खड़े उसके बाबूजी के साथियों को जिनके पास बहुत सारा पैसा तो नहीं पर हाँ दिल था बहुत बड़ा। शायद ईश्वर भी उसमे समा जाये हाँ। आपने सही सुना "ईश्वर भी उसमे समा जाए"
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
बलरामपुर चीनी मिल की गुलारिया इकाई मे कार्यरत सत्यपाल बस किसी तरह गुजर बसर कर रहे थे। सब कुछ बीत ही रहा था किसी तरह। सत्यपाल दिन बदिन उम्र लांघते जा रहे थे। घर मे बेटी के शादी की चिंता उनका सर खाए जा रही थी। हर पहर अक्सर यही बात चलती रहती "गुड़िया की शादी हो जाए बस अपनी तो पेट काट लेंगे किसी तरह"।
मंजू सिंह स्वभाव की काफी गंभीर महिला थी। घर मे कुछ भी कमी हो पर वो शिकायत ना करती थी, बस काम चला लेती थी। एक दिन सुबह सुबह अचानक से बैठे बैठे मंजू मौके की नज़ाकत भाँपते हुए थोड़े शरारती मुद्रा मे बोले पड़ी, "अरे एहरों सुनबो!! बिटिया का बियाह कराइबो की घर बैठहें रहिबों "
सत्यपाल अपनी लहजे मे बोल पड़े, "बियाह होई!! तनिक और इंतज़ार करी लौ, बात किहेन है दिनेशवा से"
इतना बोल कर सत्यपाल अपने रोज़मर्रा की काम मे तल्लीन हो गए।
शाम को दिनेश भी आ गया। अक्सर दिनेश ही रिश्तों को पक्का-कच्चा कराता था। सब लोग बैठ गए और इतमीनान से बात करने लगे।
"ए दिनेश, कौनों नीक लाइका होय त बतावों, आपन अवकात त तू जनते हौ, दु जून के रोटी कौनों तरहियन से सेकावेले" भाभी और सत्यपाल ने एक सुर मे अपनी राय बोल दी
दिनेश ने काफी गहरी सांस ली और कुछ चार पाँच फोटो झोले के कोनो से खींच कर बाहर कर दिये।
देखते ही देखते मंजू ने एक पकड़ इशारे से ही सत्यपाल की भी राय भाँप ली।
दिनेश भी समझ गया था। गुड़िया को अब सत्यपाल बाबू अपने यहाँ और जगह नहीं देना चाह रहे थे। खैर दिनेश ने सर हिलाया और हाथ जोड़ आज्ञा मांगते हुए बोला, "ठीक है बाबूजी हम आपकी बात इन तक पहुंचा देंगे और लेनदेन आप कर लेना, हम इस पचड़े से दूर रहते है। "
दिनेश के जाने के बाद मंजू और सत्यपाल मे अच्छी ख़ासी बात चली थी कुछ दलील देती बातें, कुछ समझ भरी बातें।
कुछ रोज़ बीते। अजीत सिंह सत्यपाल के यहाँ खुद ही पधार दिये। बातें काफी हो गयी तभी, मिसेज सिंह ने कहा अरे सत्यपाल जी मेरी बिटिया से तो मिलवा दीजिये। मंजू ने तुरंत आवाज़ लगाई, "गुड़िया आजा बेटा" ।
बिलकुल मंजू की छायाचित्र की एक नन्ही गोरी सी सचमुच की चलती फिरती गुड़िया सामने आके खड़ी हो गयी। गुड़िया को तो देखते ही कोई भी रिश्ता पक्का कर ले। सर्वगुणसंपन्न जो थी।
तो आखिर कार उन्होने भी हाँ भर दी।
सत्यपाल ने झिझकते हुए पूछा,"ठाकुर साहब आप अपनी मांग भी बता दीजिएगा हम नहीं चाहते बाद मे कोई समस्या मन-मुटाव आए"
अजीत सिंह ने शालीन पलटवार किया, "सत्यपाल जी क्या बोल रहे आप, पाप करवाएँगे हम लोगों से। अभी तक जितनी पुण्य किया है सब बर्बाद हो जाएगा"।
लड़के वाले शायद दहेज की खिलाफ थे। वो तो लड़की चाहते थे सुंदर, सुशील, बुद्धिमान। मंजू-सत्यपाल की खुशी देखते बन रही थी। आखिर एक बहुत बड़ा काम जो उन्होने कर डाला था। पंडित बुलाया गया शुभ मुहूर्त मिल गया 7 जुलाई। बात पक्की हो गयी गुड़िया-विवेक की जोड़ी अच्छी जमेगी यही दिनेश ने बोलकर मुंह मीठा करवा दिया।
तैयारियां ज़ोरों पर चलने लगी। दहेज ना लेने पर भी लड़की के ज़रूरत के समान खरीदने भी तो थे। चार महीने बस बचे थे। सारी गणित अच्छी ख़ासी बना ली थी सत्यपाल ने। कुछ पैसा जमा थे उन्हे निकालने की अर्जी भी दे आई थी। सत्यपाल अब तो दुगनी मेहनत से खेत से लेकर मिल तक सब काम कर आते थे। मिल मे भी उन्हे काफी दिन से पैसे मिले नहीं थे, अब वे मांगते भी नहीं थे। सोच रहे थे अभी मिलेंगे तो खर्च हो जाएंगे कुछ दिन बाद ही मिले तो ही बेहतर।
हर तरफ खुशी का माहौल जमघट लगाए पाँव पसार चुका था। जिस घर मे कभी रौनक नहीं दिखती थी उसमे आज एक अजीब ही हलचल आ गयी थी। मुखरे खिल गए थे हर-किसी के। मंजू घूम फिर के बस गुड़िया की ही बात कर देती, उसे समझाते रहती। गुड़िया ससुराल मे ऐसे करना वैसे करना। सास की सेवा करना बड़ो की इज्ज़त करना, कोई कुछ भी बोले जवाब ना देना। आखिर एक ही तो बिटिया थी फूल जैसी उसे कैसे यून्ही छोड़ देती।
दिन इतनी तेज़ी से बीत रहा था। शादी की तारीख नजदीक बस बीस दिन बचे थे। सत्यपाल आज थोड़े परेशान से दिख रहे थे। रोज़ की तरह उन्होने आज गुड़िया को भी नहीं पूछा। सीधा कोने वाले कमरे मे चले गए। मंजू अपने काम मे इतनी व्यस्त थी की वो उन्हे देख ही नहीं पाई। पर सिसकने की आवाज़ सुन वो फौरन उस अंधेरे कमरे मे दाखिल हुई। वो कमरा अजीब सा काल रूपी नज़र आ रहा था आज, जो भी जा रहा था उस तरफ वो उसे लीलने की नीयत से आगे आ जा रहा था।
मंजू से सत्यपाल की ओर देखते पूछा,"क्या हुई गवा काहें एतना रोवत हौ"
सत्यपाल रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मंजू ने बड़ी मशक्कत के बाद वो कुछ समझ पाई।
अब मंजू भी उसी तरह रोने लगी। दोनों एक दूसरे को देख रोए ही जा रहे थे। मानो कोई पहाड़ सा टूट पड़ा हो।
सत्यपाल यही बोले जा रहा था, "गन्ना बर्बाद हो गया, हम बर्बाद हो गयी। हे ईश्वर ऐसे हमारे साथ ही क्यूँ करता। सूरज बाबा कभी कम भी जला करो काहें हमरी किस्मत मे आग लगा जाते। ऊपर से बैंक वाले भी"
यही सब बोलता सत्यपाल मिल की तरफ भागा।
पर मंजू रोती रही उसके सपनों के पर्दों पर मानो कोई कैंची मार दिया हो। जगह जगह से फट चुके पर्दो पर अब पुराने जैसी तस्वीर नहीं बन रही थी। मन मार कर मंजू बैठ गयी।
मंजू एक शब्द बोलते जा रही थी, "हमरी किस्मत मे ही ई काहें गोंज दिहे भगवान"। ये सब बोलते बोलते मंजू सो गयी।
उठी तो काफी लेट हो चुकी थी। पर सत्यपाल नज़र नहीं आ रहे थे। शाम तक अक्सर वो आ जाया करते थे। पर रात हो आई थी। अब मंजू जाए भी तो कैसे घर मे गुड़िया अकेली थी। तभी बाहर मची कोलाहल देख वो दंग रह गयी। या ये कहें की उसे विश्वास ही नहीं हुआ ऐसा। बहुत दूर किसी को घेर पूरे मुहल्ले वाले खड़े थे। शोर-शराबा चीख सब उसके विपरीत ही थे पर उसका मन अभी ये मानने को तैयार नहीं था। बस 100 कदम का ये सफर मानो 100 दिन ले रहा था, उसके कदम थक रहे थे। उसके आँखें और देखने की गवाही नहीं दे रही थी, कान सब सुन के अनसुना करना चाहते थे। पर परिस्थिति इस बार फिर मंजू की शक्ति जाँचने को तैयार खड़ी थी।
हाँ, सत्यपाल लेटे पड़े थे। वे मिल के बॉयलर मे उबलते पानी मे गिर के अपनी जान खो चुके थे। मिल के आला अधिकारियों से लेके मजदूर तक सब मंजू को दिलासा दे रहे थे। आखिर सत्यपाल ऐसे व्यक्तित्व के आदमी थे कि उनसे कोई नाराज़ हो ही नहीं सकता था, सिवाय ईश्वर से। भगवान से उनकी कभी बनी नहीं। काफी मंजर बदल गए थे। दुखों के बादल तो बस मंजू के आँगन मे अपना डेरा डाले कष्टों की बारिश किए जा रहे थे।
मंजू बेसुध हो चुकी थी। गुड़िया रोए जा रही थी। सबने मंजू-गुड़िया को सम्हाला। सत्यपाल का दाह-संस्कार किया।
बीस दिन बाद। गुड़िया की शादी हुई। हाँ बड़ी धूम-धाम से। सभी मजदूरों ने अपनी एक महीने का वेतन काट सत्यपाल की झोली मे दे दिया था। मिल मालिक ने भी काफी मदद की। शायद किसी बात की कोई कमी नहीं थी उसकी शादी मे। बस सत्यपाल नहीं थे।
शादी मे बैठी गुड़िया ये तय नहीं कर पा रही थी किसको धन्यवाद करें। अपने बाबूजी को जो उसकी लिए अमूल्य धरोहर थे, अपनी माताजी को जिसने कभी सुख का स्वाद ही नहीं चखा, या वहाँ खड़े उसके बाबूजी के साथियों को जिनके पास बहुत सारा पैसा तो नहीं पर हाँ दिल था बहुत बड़ा। शायद ईश्वर भी उसमे समा जाये हाँ। आपने सही सुना "ईश्वर भी उसमे समा जाए"
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
राहुल अत्यंत ही सुन्दर भावपूर्ण कहानी.....सच ही है दिलों की गहराई और प्यार पैसे के तराजू पर कहाँ तोला जा सकता है। अच्छी कथा बन पड़ी है.....एक सोपान पर आकर मार्मिक हो जाती है.....उनसे कोई नाराज़ नहीं हो सकता सिवा भगवान के.....यह एक अबूझ प्रश्न ही है पता नहीं क्यों सच्चे लोगो की ईश्वर परीक्षा ही लेता रहता है। मनुष्य इहलौक परलोक के चक्कर में बस कर्म करता है और शायद यही उसको दुखों को सहने की सामर्थ्य भी देते है।....बधाई एक अच्छी कहानी के लिए....कही से दिल को छू कर गुज़र गयी।
जवाब देंहटाएंभगवान काफी निर्दयता दिखा जाता कभी कभी।
हटाएंनमस्ते जी।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात।
शनिदेव आपका कल्याण करें।
आपका दिन मंगलमय हो।
--
अच्छी प्रस्तुति।
काफी समय उपरांत ब्लॉग पर पधारने के लिए एक बार फिर स्वागत है। अच्छा लगा।
हटाएंबबुआ बहूत नीक लागी हमका .. !
जवाब देंहटाएंसम्वाद आंचलिक भाषा में कथा में ह्रदय स्पन्दन से बन पड़े हैं। बहुत खूब भाई !
हमका इ तो कन्फर्म है की इक राहुलवा कछू गजब ढावेगा ।
सत्य्पाल का दिनेश से पहला सम्वाद ही पढ़ कर लगा की हर वर्ग को पढने उक्सायेगी
जीते रहो
भैया आपकी टिप्पणी रुकी गाड़ी में डीजल भर देती साथ ही माईलेज चौगुना करती वो तो अलग।
हटाएंये स्टोरी मुझे बहुत अच्छी लगी ..... हर पहलु पर लगा की शायद ये होगा आगे ....या ये.... पर कुछ नया लिए हुई थी इस बार आपकी रचना :) और ये अवधि भाषा का प्रोयोग ..... जबरदस्त था :)
जवाब देंहटाएंक्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करने से हम इसलिए कतराते क्यूँ की हमे लगता शायद रचना किसी खास वर्ग के लिए हो जाती। पर हम गलत थे हाँ। सारे लोग सहज लगे इस कहानी मे आगे भी कलम चलती रहेगी।
हटाएंबहुत ही बेहतरीन... दिल को छू लेने वाली...
जवाब देंहटाएंकुछ पंक्तियों ने पूरे कहानी मे जान डाल दी है...
भाषा भी बहुत उत्तम...!!
विशाल एक बारगी तो हमे लगा कोई भाषाविद टिप्पड़ी कर रहा। गजब का अवलोकन है सुंदर।
हटाएंभाषा बहुत ही उत्तम...
जवाब देंहटाएंकिसी एक दिशा मे जाती हुई कहानी नहीं लगी... हर लाइन मे नयी चीज रही...
ये चीज बेहतर...!!
साधारण भाषा के प्रयोग से किसी वर्ग को समझने मे दिक्कत नहीं होगी...
कुछ लाइनों ने पूरी कहानी मे रींड की हाड़ी का काम किया...!!
कुल मिलकर बहुत बेहतर...!!
हाँ विशाल बारीकी से पकड़ा तुमने कहानी का मर्म।
हटाएंपहले तो माफ़ी .. भाई.. नेट के चलते देरी से कमेंट दे रहा हूँ ....
जवाब देंहटाएंकहानी ..पर शुरू से पकड़ बहुत ही मजबूत है ... उसके लिए बधाई ..
विशेषतः आपने जिस प्रकार से संवाद कहे हैं आंचलिक भाषा में वह यह भी बताती है कि आपने कितने करीब जा कर इसका सृजन किया है |
बहुत बहुत बधाई ..
स्वागत है आपका खामोशियाँ के दुनिया मे।
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