भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 16 मई 2014
ज़िंदगी
सुलझी ही रहती तो जिंदगी कैसे होती...
उलझी ही रहती तो बंदगी कैसे होती....!!!
नाम हथेली मे छुपाए घूमते रहती...
बहकी ही रहती तो सादगी कैसे होती....!!!
चर्चे फैलते जा रहे हर-तरफ मुहल्लों मे...
हलकी ही रहती तो पेशगी कैसे होती....!!!
पसंद तो करते ही हैं तुझे सारे चेहरे....
चुटकी ही रहती तो बानगी कैसे होती...!!!
©खामोशियाँ-२०१४ मिश्रा राहुल
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कुछ ख्वाहिशें हम भी पालना चाहते हैं, थोड़ा ही सही पर रोज मिलना चाहते है। मरने का कोई खास शौक नहीं है हमें, जिंदा रहकर बस साथ चलना चाहते है...
सुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआप ने लिखा...
मैंने भी पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पड़ें...
इस लिये आप की ये रचना...
19/05/2013 को http://www.nayi-purani-halchal.blogspot.com
पर लिंक गयी है...
आप भी इस हलचल में अवश्य शामिल होना...
बहुत सुन्दर ......
जवाब देंहटाएंसुंदर।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
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