भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 22 मार्च 2014
बदलाव
टूटे-फूटे जर्जर
कुल्फीयों के साँचे,
सर्दियों की
रज़ाई से निकाल आए....!!!
किसी को
नज़ला हुआ...
कोई खांसी से परेशान...!!!
सभी अनसन पर है....
बुजुर्गो को पेंशन दो....
हमारी आमदनी निर्गत करो....!!!
बड़ी टाल-मटोल बाद
वैद्यजी बुलाये गए
नब्ज़ टटोल
कुछ तो फुसफुसा रहे....!!!
कह रहे होंगे....
बदलाव का मौसम,
बिना चोट के कहाँ जाता....!!!
©खामोशियाँ-२०१४
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बढ़िया रचना राहुल भाई , धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंनया प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ प्राणायाम ही कल्पवृक्ष ~ ) - { Inspiring stories part -3 }
बदलाव का मौसम ... बहुत कुछ कह रही है ये रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और कोमल अहसास...बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना...
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