गीत बदली नहीं बरस लग गए सुनाने मे.....!!!
इसे मजबूरी बना देना बेमानी सी होगी.....
बड़ी मुश्किल से गजल बनती है जमाने मे.....!!!
दूसरों की बस्तियों मे सम्मे कैसे जलाए.....
जब आग लगी बैठी अपने ही शामियाने मे......!!!
मौके दिये भी गिने चुने इस ज़िंदगानी ने......
हथेली ने धुल डाली लकीरें उसे भुनाने मे......!!!
©खामोशियाँ-२०१३
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (29-10-2013) "(इन मुखोटों की सच्चाई तुम क्या जानो ..." (मंगलवारीय चर्चा--1413) में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
डॉ साहब मेरे पोस्ट को महत्व देने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअपने शामियाने को बचाना इसलिए ही जरूरी होता है ...
जवाब देंहटाएंअच्छे शेर हैं सभी ...
बिल्कुल दिगम्बर सर।
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