खुद मुखौटों मे उलझाए बैठे हैं....!!
चाँदनी कितनी चलती साथ...
ढेबरी पाकिटों मे छुपाए बैठे हैं...!!
आमवास अकेली पीछा करती...
जुगनू हाथो मे गढ़वाए बैठे हैं....!!
उम्मीद का साथ एक-दो कदम...
तकदीर खुद की बनवाए बैठे हैं...!!
©खामोशियाँ
भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (25-09-2013) टोपी बुर्के कीमती, सियासती उन्माद ; चर्चा मंच 1379... में "मयंक का कोना" पर भी है!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन.
जवाब देंहटाएंजय जय जय घरवाली
सराहनीय भावयुक्त शब्द !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर नज्म
जवाब देंहटाएंधन्यवाद....आभार एवं सुस्वागतम हमारे ब्लॉग पर....!!!
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