ठण्ड लग गयी और शायद हाँ छू गयी एक एहसास...किसी कि भीगी जुल्फों की...हाँ गुनाहगार हैं मेरी वो सब सीतलहरें...जिन्होंने टाफी खा के मुह लभेड रखा हैं उनके अक्स से...!!!धूप उतरती कितने सैन्यारो को लांघते...
अजीब सी उलझन थामे रखती जेहन में...!!!
हलकी मुलायम गुदगुदाती हुई देख...
कभी गिर पड़ती एक जगमगाते कांचे पर...!!!
लोग भूल जाते उन्हें शायद..
तभी ग़लतफहमी में कांचे उठा लेते...!!!
अब्र तो खड़े कि कब बरस पड़े पर..
उससे पहले ओस समां धुधला कर देती...!!!
जाने कैसा लगता जहाँ क्या बताऊ...
कोई पतली शीशी में पानी भर रहा मानो...!!!
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