भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 27 सितंबर 2014
हमदर्द
टूट जाए तो जता दीजिये,
रूठ जाए तो मना लीजिये।
यादों की बातें याद रहती,
भूल जाए तो सुना लीजिये।
वक़्त अजीब है बुरा नहीं,
लूट जाए तो चुरा लीजिये।
वादों की गठरी लादे बैठे,
फूट जाए तो उठा लीजिये।
दर्द में ऐसा हमदर्द खोजा,
छूट जाए तो बुला लीजिये।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(२६-सितंबर-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
गुरुवार, 11 सितंबर 2014
बेवजह
सुबह ऐसी इशारे लिख रही है।
बहकी बयार रुकी-रुकी सी है,
धूप ऐसी चौबारे खिल रही है।
मगन है भौरें अपने गुंजन में,
भूल ऐसी कतारे मिल रही है।
जलन है लोगों के ख्वाबों में,
धूल ऐसी दीवारे सिल रही है।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (११-सितंबर-२०१४)
सोमवार, 8 सितंबर 2014
परख सकूँ
अपना कहूँ या फिर गैर कह सकूँ,
पैमाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
कच्चे खिलौने टूट मिट्टी मिलते,
बहाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
नकाब दर नकाब ओढ़े बैठे लोग,
मनाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
घड़ी थम जाती है किसी के जाते,
घुमाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
गमों की गठरी अब सर चढ़े बैठी,
सुनाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
सुराख हो चुकी है अब अंदर तक,
छिपाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०८-सितम्बर-२०१४)
गुस्सा
मुंह फुलाए या हम गुस्सा करे।
ढूंढ रहे आज भी लोग ऐसे हम,
जिन पर जीभर हम गुस्सा करे।
खो जाते मेरे हिस्से के सितारे,
टूटते जाए वो हम गुस्सा करे।
भूल ना जाए खो ना जाए ऐसे,
मुझे मनाए गर हम गुस्सा करे।
वक़्त बदलता है तो बदल जाए,
मन ना भाए तो हम गुस्सा करे।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०८-सितंबर-२०१४)
ख्वाब
चेहरे रातों में ऐसे भी तपते हैं।
गुमनामी में चिराग लेके खोजते,
मोहरे राहों में ऐसे भी सजते हैं।
पलभर में बदलते पैंतरा अपना,
नखरे बाहों में ऐसे भी लखते हैं।
बात हो तो कोई भूले भी कैसे,
पहरे यादों में ऐसे भी चलते हैं।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०८-सितंबर-२०१४)
प्रेम-पत्र बनाम मैसेज
प्रेम का महत्व दिन बदिन कम होने से मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया आखिर इस बात के पीछे सच्चाई क्या है। दिमाग पर काफी ज़ोर डालने पर मालूम चला की पूरा माजरा आज की बदलती तकनीक का है।
प्रेम-पत्र की जगह मैसेज ने ले ली है। जिसमे ना प्रेम होता ना पत्र। हाथ की लेखनी से लेकर पत्र की खुशबू तक सारे गवाही देते उनके साथ होने की। वक़्त लगता तो लग जाए एक हफ्ते दो हफ्ते में जवाब आते। उसी रंगबिरंगे लिफाफे में। रोज़-रोज़ अपने पत्र की इंतज़ार में डाकिया चाचा की सलामती पूछी जाती। वो भी मुस्कुरा के बस इतना कह देते बहू का खत अभी आया नहीं लल्ला।
ये हफ्ते-हफ्ते की बेचैनी, और कुछ सोचने का समय ही कहाँ देती। बस सोचते रहते उनकी सुंदर सुंदर लेखनी में लिपटे उनके भोले भोले जवाब। गुलाबी रंग के लिफाफे गुलाब जैसे महकते उनके बालो की तरह। एक एक हफ्ते पर हाल-चाल जानना आज के समय के हिसाब से तो बड़ा दुर्लभ चित्रण करता। पर उसमे भी अपना मज़ा था।
मोची/दर्जी/माली हर किसी को ख्याल रहता। सब अपनी अपनी तरफ से मदद की हाथ बढ़ाने को तैयार रहते। और हो भी क्यूँ ना प्रेम तो पूजा है। कभी दर्जी काका उनके सूट की चर्चा करते तो मोची चचा उनके सैंड़िल। माली दादा तो अपने गुलाब लिए आते पर शाम को उनको झरता देख रोने से लग जाते।
बरस बीत जाते मुलाक़ात किए/देखे उन्हे जमाने हो जाते। एक झलक खातिर मीलों दूर पैदल चलकर आते और पता चलता आज वो नानी के घर गयी है। पैरो के छाले मुंह चिढ़ाते और दिल उनपर फिर अपने प्यार को पाने के चाहत की लेप लगा भर देता।
लेकिन आजकल के परिवेश में तो फेसबुक/व्हाट्सएप/गूगल प्लस इस बेचैनी को बढ़ने कहाँ देते। सारी बातें तुरंत साफ करने से सोचने के समय में अभाव हो जाता और इस वजह से लोग अनर्गल कर जाते।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
शुक्रवार, 5 सितंबर 2014
हॅप्पी टीचर डे....
टूटी पेंसिल....पुराने शार्पनर....कलर पेंसिल....चार लाइनर कॉपी....!!
नन्हें हाथो में अनगिनत सपने.....उनको पूरा करने के लिए तैयार एक शख्स पूरी तल्लीनता के साथ...!!!
जब पेंसिल पकड़ अक्षर लिखाते...उनके हाथ में वो नन्हें हाथ समा जाते...दिल में एक विश्वास रहता...गलत रास्तों पर कदम ना भटकने देंगे....
रोक लेंगे....
मार कर... पीट कर...दुलार कर...!!!
चाहे जैसे भी बस....उनके आँखों के सपनों को पहचानते...उन्हे ज़िंदगी के अनुभव बांटते....!!
उन्ही अनुभवों के बीज ऊपर आकार लेने लगते... और एक दिन उस पर मीठे फल लगते....पर तब तक वो शक्स शायद उनके फल चखने के लिए पास ना होता...!!!
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हॅप्पी टीचर डे....
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
सोमवार, 1 सितंबर 2014
शुक्रगुजार हूँ
रास्ते पे खड़ा
कदम चाप गिन रहा।
दर्द
अपनी पोटली
सौपने को मजधार खड़ा।
रोज़ की
गुजरती ज़िंदगी ने
अचानक राइट-टर्न* ले लिया।
गम..तनहाई...
अब मेरी
शागिर्द नहीं ठहरी।
नए रास्तों नें
मुझमें गजब
उम्मीद जागा दिया।
हवाएँ...तस्सवुर....
ख़्वाब... तबस्सुम....
मेरे सिपाही बन गए।
शुक्रगुजार हूँ,
एक झटके में,
ज़िंदगी से लड़ना,
कितना आसान कर दिया।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०१-सितंबर-२०१४)
हालत
दरिया में जितने ठिकाने ढूंढ लाए।
जाने कैसी खोज में निकले हम,
शहर से पुराने घराने ढूंढ लाए।
हालत ने रुसवा किया इस कदर,
बिखर के उतने जमाने ढूंढ लाए।
कमी हो गयी मुहल्लों के प्रेम की,
निकल के उतने दीवाने ढूंढ लाए।
कह सके दिल की बात औरों से,
सफर से उतने सयाने ढूंढ लाए।
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०१-सितंबर-२०१४)
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