बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

सोमवार, 8 सितंबर 2014

परख सकूँ



अपना कहूँ या फिर गैर कह सकूँ,
पैमाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।

कच्चे खिलौने टूट मिट्टी मिलते,
बहाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।

नकाब दर नकाब ओढ़े बैठे लोग,
मनाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।

घड़ी थम जाती है किसी के जाते,
घुमाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।

गमों की गठरी अब सर चढ़े बैठी,
सुनाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।

सुराख हो चुकी है अब अंदर तक,
छिपाने दो ऐसे की उसे परख सकूँ।

©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(०८-सितम्बर-२०१४)

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