कुल्लियाँ करती उफनाती बटुली...!!
उसपे फूँक मारने तरसती बयार...
एक बूढ़ा उठता धुआँ...
चिमनी पर चढ़ के...
चाँद मे समा गया....!!
दौड़के उसके पीछे कैसे...
काला साया लिए निशा...
भीग गयी पसीने से...!!
©खामोशियाँ-२०१३
भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
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