भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015
यादों से लड़कर
बदलते वक़्त में कौन खड़ा होता है,
नज़रों से गिर के कौन बड़ा होता है।
देखते है पुराने गुज़रते लम्हे दूर से,
पास होकर वहाँ कौन पड़ा होता है।
ज़िंदगी के पहिये पर बढ़ते ही जाते,
यादों के ताबूत में कौन गड़ा होता है।
समझौता कर लेते अपने दिलासों से,
ख्वाबों से लड़कर कौन कड़ा होता है।
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यादों से लड़कर (२६-फरवरी-२०१५)
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
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