अब देख रहा हूँ तुझे मेरी फिक्र नहीं है,
इस बदले लहज़े में अपना ज़िक्र नहीं है।
गुलाब आज भी महकता पुरानी डायरी से,
बहुत खोजा इसके पास कोई इत्र नहीं है।
बहुत सारे कदम तो मेरे भी उसने चले हैं,
ऐसे कैसे कह दूं कि वो मेरा मित्र नहीं है।
जो दीवारों पर टंगा वो बसा है यादों में,
काठ के खांचों का बस एक चित्र नहीं है।
©खामोशियाँ-2018 | मिश्रा राहुल
(22 - अप्रैल - 2018)(डायरी के पन्नो से)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें