कभी
डायरी थी
तो कलम था,
कभी ठहरा
हुआ सा मन था।
डेहरी थी
लालटेन टांगे
कंधों पर,
ऊपर याद था
उनका मगन सा।
शाम
की छांव में
कुछ नज़्म होंठों से
सीधा कार्बन कॉपी
होते थे पन्नो पर।
आजकल
चमकते सेलफोन पर,
बटन के दाने चुंगते हैं
यादों के कबूतर।
डायरियां जैसा
भरता नहीं पन्ना इसका,
इसमें खुशबू भी नहीं
किसी भी नज़्म के इत्र की।
तारीखें सिग्नेचर,
से मिलानी पड़ती।
कभी लिखावट से
पहचान लेते थे
तबियत नज़्मों की।
कभी
जब होती है,
चर्चा नज़्मों की।
खुल जाती चमचमाती
स्क्रीन पॉकेट से निकलकर।
और दूर पड़ी
रैक पर डायरी
घूरती रहती है मुझे।
- मिश्रा राहुल | 04- अप्रैल -2018
(डायरी के पन्नो से)(खामोशियाँ-2018)
वाह ! सुंदर कविता, डायरी और सेलफोन में अब कौन जीतने वाला है यह तो भविष्य ही बताएगा
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