भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 31 जुलाई 2015
शुक्रवार, 24 जुलाई 2015
छोटी सी पहल - लघु कथा
बरसात में भीगती शाम में अकेले तनुज अपनी दूकान में बैठा रास्ता निहार रहा था सुबह से एक भी कस्टमर दुकान के अन्दर दाखिल नहीं हुआ। तनुज से बाजू में रखी ईश्वर की मूर्ति निहारी थोडा दिमाग पे जोर भी डाला फिर मन ही मन बडबडाया " पिछले एक हफ्ते से आखिर कोई दूकान में आता क्यूँ नहीं। पूजा भी किया है भरपूर नारियल भी तोड़ा मंदिर में। फिर भी भगवान में मेरी किस्मत तोड़ रखी है।"
यही सब भुनभुनाता तनुज फिर से रास्ते को निहारने में जुट गया। वो एक बार बहार झांकता फिर वापस अपने दराज पर देखता। चार दस के नोट दो बीस के और एक पचास के कुल मिलकर हुए 130 रुपये। उसी 130 रूपए को हजारों बार गिन चूका था। तनुज घर का बस एक कमाने वाला उसके घर का चूल्हा बस तनुज की कमाई पर चलता है। हाँ एक बीबी है एक बेटी है परी। बीबी के जरुरत के सामान बेटी के स्कूल का खर्च। बहुत सारा दबाव में रहता तनुज आजकल। घर पहुँचता तो सारा परिवार एक आस की निगाह से उसे देखता, पर तनुज एक पास उसके एक प्यार भरी मुस्कान के अलावा और कुछ नहीं देने के लिए।
दो पहर क्या दो दिन में एक बार चूल्हा जलता। जिस दिन थोड़ी कमाई हो जाती पेट की आग बुझ जाती नहीं तो दो जून की रोटी जुटाने तक की भी कमाई नहीं हो पाती। ऊपर से दूकान का भाड़ा भी दिन बदिन चढ़ता जाता। रोज दूकान मालिक आके गली-गलौज कर जाता। बिटिया की स्कूल फीस जमा नहीं हो पाई थी इसीलिए उसका नाम स्कूल वालों नें काट दिया था। इधर तनु भाभी भी बीमार ही रहती थी। पर गरीबों की बीमारियाँ देखता कौन है लोग क्या पल्ला झाड़ेंगे ईश्वर ही कभी नहीं झाँकता उनके तरफ।
साक्षी भाभी बड़ी उत्कृष्ठ विचार धारा साधारण सी महिला थी। साधारण कहना थोड़ा सा गलत होगा वो असाधारण महिला थी। पढ़ी लिखी तो नहीं थी पर अनुभव की मिट्टी नें उन्हे इतना पका दिया था कि समाज की हर बारीकियों से वाकिफ थी। तनुज अपनी विवशता बताता तो नहीं था पर उसको देखकर ही साक्षी सब कुछ समझ जाती थी।
तनुज एक मोबाइल रीचार्ज दुकान चलाने वाला आम आदमी। वैसे तो तनुज की दुकान मेन रोड पर थी। आम तौर पर अच्छी-खासी चलती थी। पर बीते कुछ दिनों से दुकान भी फीकी थी और उसकी रंगत भी गायब। तनुज गहरी सोच में डूब गया आखिर ऐसा हुआ क्या कि लोगों नें रीचार्ज भरवाना बंद कर दिया। मोबाइल तो सबके हाथों में हर रोज देखता था वो, साथ ही बात करते भी। वो सोचता रहा और जाने क्या क्या अपने दिमाग में उलझाता रहा। लेकिन आज भी दिन जस का तस ही रहा। फिर वहीं मालिक का ताना और फिर वही भगवान को कोसना। पर आज कुछ बदला था हाँ तनुज का व्यवहार। तनुज तिलमिला उठा।
उसनें बड़े गुस्से से शटर की कुंडी खींच कर नीचे पटक मारा। जैसे यूं हो की दुनिया भर का गुस्सा उसनें उस शटर पे उतार कर बदला ले लिया हो। घर पहुंचा तो नन्ही बिटिया परी दौड़कर उसके पास आई। तनुज झल्ला कर उसको एक थप्पड़ मार दिया। परी रोते-रोते साक्षी से लिपट गयी। उसको रोता देख साक्षी की आँख से एक आँसू उसके गालों को छूता हुआ जमीन पर दम तोड़ दिया। तनुज नें एक शब्द नहीं बोला और सीधा कमरे में जाकर लेट गया। आँख बंद करके कुछ सोच रहा था। पर अचानक उसने अपने माथे पर हौले-हौले से सहलाहट को महसूस किया।
तनुज आँख बंद करते ही बोल रहा था। “साक्षी जाओ मुझे अकेले रहने दो थोड़ी देर सही। थोड़ी देर में मैं सम्हाल लूँगा खुद को।” बहुत मिन्नते करने पर भी जब सहलाना बंद ना हुआ तो तनुज फिर झल्लाया “साक्षी तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है मैं कह रहा न जाओ यहाँ से।”
“पर मैं साक्षी नहीं पापा मैं तो परी हूँ” एक हल्की सी आवाज नें पूरे झल्लाहट को रौदकर रख दिया।
तनुज नें सर घूमकर परी को देखा तो दंग रह गया उसके पांचों उँगलियों की लाल स्याही अपने गोरे से गाल पर लगाए परी उसके सर को सहलाए जा रही थी। तनुज परी को गले लगा लिया। उसका गला भर गया। परी तनुज से ऐसे चिपकी हुई जैसे छोटी सी खिलौने वाली गुड़िया बचपन में बच्चे सीने में चिपका लेते। तनुज के आँख रिसने लगे। परी नें दोनों हाथो से उनके आँसू पूछ दिया और एक हल्की सी मुस्कान दे दी। मंजर मानो ऐसा कह रहा हो पापा नें बिटिया से माफी मांग लिया और बेटी नें भी उन्हे माफ कर दिया।
“तनुज!! मुझे पता है तुम्हारी दुकान नहीं चल रही। तुम नहीं बताओगे तो क्या मैं जान नहीं पाऊँगी।” साक्षी नें तनुज से कहा
“हाँ!! पर मैं बताकर तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था। वैसे भी तुम खुद ही बीमार हो परेशान हो इस पर अगर मैं तुम्हारा खयाल नहीं रख सकता पैसे नहीं ला सकता तो कम से कम तुम्हें एक हल्की मुस्कान तो दे सकता।” तनुज नें कहा
“हाँ दिया तो तुमने बड़ी अच्छी सी मुस्कान परी के गाल पर अभी भी चिपकी है वो देख लो।“ साक्षी नें गंभीरता से कहाँ
“शर्मिंदा हूँ मैं अपने किए पर।“ तनुज नें सफाई में बस इतना सा बोला
तनुज नें आज ठान लिया की पूरी बात साक्षी को बता देगा। तनुज नें बोलना शुरू किया। कल मनीष आया था दुकान पर हाल-चाल लेने। अरे मनीष(लंदन वाले) तनुज नें साफ किया। मैंने भी उसको अपनी दिक्कत बताई। मनीष नें बात को बारीकी से आज समझाया की क्या तनुज आजकल ऑनलाइन रीचार्ज की दुनिया में तुम ये धंधा खोल कर बैठे हो। अब तो लोग इंटरनेट से घर बैठे अपने कार्ड से रीचार्ज कर लेते है।
“घर बैठे रीचार्ज कर लेते है। मनीष क्या मज़ाक कर रहे हो।“ मैंने उत्तेजना में पूछा
हाँ यार देखो कुछ बड़े ऑनलाइन रीचार्ज जैसे पेटीएम, फ्रीचार्ज, मोबीक्विक बड़े आसानी से और सरलता से रीचार्ज के ऑप्शन दे रहे वो भी घर बैठे। फिर कोई तुम्हारे यहाँ क्यूँ आएगा। साथ ही साथ वो कूपन भी देते कुछ कंपनियों के साथ उनकी करार है। उन कंपनियों से खरीददारी करने पर छूट भी मिलती।
“मनीष मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। अब तुम बोल रहे हो तो सब होता होगा। लेकिन इन बड़े लोगों के आने से देखो हमारी माली हालत कैसी हो गयी है।“ मैंने कहा
साक्षी चुपचाप सब सुनते जा रही थी।
“हाँ तनुज बात तो सही है पर इतना ध्यान कौन देता। लोग अपनी सहूलियत देखते बस। अच्छा तनुज मेरे लायक कोई सेवा होगी तो बताना। अभी थोड़ा जल्दी में हूँ। संकोच ना करना तू मेरा जिगरी यार है बस इतना याद रखना।“ मनीष नें मोबाइल कान में लगते वहाँ से चल दिया
“ये सब ही है साक्षी दिक्कत। अब मैं क क क”
साक्षी नें तनुज की बात बीच काटते हुए टोका, “दिक्कत क्या है। मेरे पास एक उपाय है। जिससे तुम्हारी सारी तो नहीं पर कुछ उलझाने दूर हो जाएंगी। लेकिन हिम्मत रखना होगा”
“बोलो साक्षी” तनुज नें हुंकारी भर दी।
“तुम रीचार्ज का धंधा छोड़ दो ना।” साक्षी ने दो टूक कहा
इतना सुनते तनुज के हाथ पाँव सुन्न हो गए। आँख धूधलाने लगी मानो किसी गहरी सोच में डूब गया हो तनुज।
“साक्षी वो सिर्फ दुकान नहीं है मेरे लिए धरोहर है। भैया के चलाते थे उनकी यादें है। इसीलिए दुकान का नाम अम्मा के नाम पर रखा है। इतनी सारी यादों को दफन कर दूँ। पगली पाप करवाएगी तू। ना नहीं होगा मेरे से ये।“ तनुज नें फैसला सुना दिया
“मेरी बात तो सुनो। बस काम बदलने को कह रही हूँ ना नाम ना दुकान। थोड़ी मदद मनीष भैया से ले लो उन्होने कहा है ना जरूरत पे याद करना। बाद में उनका उधार चुका देंगे।” साक्षी नें अपनी बातों में बारीकियाँ जोड़ दी
तनुज को मनीष से पैसे मांगने में ही संकोच होगा। यही सोचकर उनसे गर्दन तो हिलाई पर साक्षी समझ गयी थी तो संतुस्ट नहीं।
बात चीत में सुबह आ धमकी पता ही नहीं चला। तनुज घर से निकला दुकान जाने के लिए पर चौराहे पर आकर रुक गया। उसके कदम डगमगा रहे थे मनीष के घर को मुड़े या फिर अपनी पुरानी किस्मत को गले लगाए। इस उधेड़बुन में उसनें करीब चालीस मिनट लगा दिये। साथ ही उसके आँखों के आगे हर मंजर चलते जा रहे थे। लेकिन घर से निकलते वक़्त उसने परी के गालों पर अपनी उँगलियों की मोहर देखी थी वो ओझल नहीं हो रही थी। आखिरकार चल दिया तनुज मनीष के घर।
मनीष नें तनुज की मदद कर दी होगी। तनुज एक नया धंधा शुरू भी कर लिया होगा। साथ ही उसका धंधा अच्छा भी चला होगा। तनुज-साक्षी-परी फिर खुशहाल हो गए होंगे शायद। तनुज अपनी उधारी भी चुका दिया होगा। पर क्या हम एक छोटा सा काम नहीं कर सकते। रीचार्ज के लिए ऑनलाइन माध्यम चुनने से बेहतर छोटे विक्रेताओं से रीचार्ज नहीं करवा सकते। कर सकते है एक छोटी सी पहल बड़े काम कर सकती है।
सोचिएगा ज़रा
छोटी सी पहल | लघु कथा
सोमवार, 13 जुलाई 2015
इतने खास हो मेरे
तुम दूर कहाँ हमसे इतने पास हो मेरे,
रोज ख्वाबों मे आते इतने खास हो मेरे।
रात होती काली दिल डर सा जाता है,
उसमे जुगनू सजाते इतने खास हो मेरे।
अकेली तितली सी उड़ती जिंदगानी में,
तुम विश्वास जगाते इतने खास हो मेरे।
मेरे इर्द-गिर्द बस महकती तबस्सुम तेरी,
ऐसा एहसास दिलाते इतने खास हो मेरे।
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(१३-जुलाई-२०१५)(डायरी के पन्नों से)
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