अपने पुराने
काठ के टेपरिकॉर्डर में
कैद करके रखी थी,
कुछ पुरानी
चुनिंदा नज़्में।
हर रोज
उसके सर पर,
टिप मारकर
जगाता था।
सुर
निकलती थी,
सामने सफेद
प्याली से टकराकर
गूजती थी बातें उसकी।
हर रोज नई नज़्म
अपनी छाप छोड़ती।
लेकर बैठता था
खाली प्याली अपनी।
हो जाती
कभी सौंधी सी,
तो कभी भीनी भीनी सी।
कुछ नज़्म
आँखे दिखाती,
तो कभी हो जाती तीखी सी।
अब
टेपरिकॉर्डर भी
रिवाइंड नहीं होता,
फंसता है उसका
पांव आजकल।
कुछ
नज़्म बोलता,
कुछ पर गला
फंसता उसका।
कैसेट से
उसकी बनती नही।
रील्स उलझकर
उसके गर्दन कसती हैं।
सोच रहा हूँ,
बेच दूं पर खरीदेगा कौन।
यादों से भरा इतने
वजन का टेपरिकॉर्डर।
- मिश्रा राहुल | खामोशियाँ
(03-मार्च-2018)(डायरी के पन्नो से)
उम्दा !
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ कह दिया...!
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