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भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
मंगलवार, 30 जून 2015
शनिवार, 27 जून 2015
पुरानी लिबास
पुरानी लिबास पहनकर निकल गए,
हम गलियों से मिलकर निकल गए।
आदाब करती है बातें खतों में उलझी,
हम लिफाफों को मनाकर निकल गए।
दूर जाऊँगा तो याद आएगी ना तेरी,
तस्वीर झोले में छुपाकर निकल गए।
ये फिजाएं आज तक गुलाम है तेरी,
उम्मीद-ए-चिराग लेकर निकल गए।
जीने की तस्सवुर नहीं होती बिन तेरे,
गुजारिश अपनी बताकर निकल गए।
गज़ल | खामोशियाँ | २६-जून-२०१५
मिश्रा राहुल | ब्लोगिस्ट एवं लेखक
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