बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

लप्रेक १


सीटी के साथ ट्रेन निकल पड़ी। खिड़कियों से सटे दो आँखों के बीच दो उँगलियाँ एक दूजे में गुफ्तगू कर रही। पीले बैक्ग्राउण्ड में काले अक्षरों के बोल्ड लेटर में कुछ गुदा है। आपातकालीन खिड़की से पूरा गर्दन बाहर निकालकर देख तो लिया। भुनभुनाया भी "engage" पर स्टेशन जैसा नहीं लग रहा ये नाम।
उसके दुपट्टे ने अभी आधा सर कलम किया था कि "टिकिट दिखाइए"।

उसने टीटी को घूर कर देखा। लो दिखा दो ना। इतना कहकर मुस्कुरा दी और आधे सर कलम की रश्म भी पूरी हो गयी। 

स्क्रीन पर टिकिट था ही नहीं, बस वही पीले बैक्ग्राउण्ड में काले बोल्ड अक्षरों में कुछ गुदा था जो वह आजतक भूल नहीं पाया। स्टेशन का नाम नहीं था। भला अंकगणित में स्टेशन कब से छपने लगे।

©खामोशियाँ | (१३-अगस्त-२०१५)
(मिश्रा राहुल) (डायरी के पन्नो से)

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