बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

मुक्ताहार


ज़िंदगी
मुक्ताहार होती
अपने उसके मोती....!!

जैसे जैसे
अपना दूर जाता...
हार हल्का होता जाता...!!!

अंततः बस
धागा रह जाता...!!!
बिना कीमत का...
बिना वजूद का....!!!

अकेला चुप-चाप...
गुम-सुम पड़ा
कहीं किसी कोने-अतरे...!!
_____________________
- मिश्रा राहुल

मुक्ताहार-(डायरी के पन्नो से)
©खामोशियाँ-२०१४//(०८-अगस्त-२०१४)

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